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________________ 16 :: तत्त्वार्थसार मन व इन्द्रियों से जानने योग्य विषय तो आगे कहेंगे', परन्तु यहाँ पर यह बताते हैं कि वह एकएक विषय भी कितने प्रकार का होता है । प्रथम तो एक व्यक्त, एक अव्यक्त ऐसे दो प्रकार का विषय माना गया है। जिस प्रकार एक मिट्टी के कोरे बर्तन को पानी की बूँदें डाल-डालकर भिगोना शुरू किया तो, पहले एक दो बूँद तो उस पर पड़ते ही ऐसी सूख जाएगी कि देखनेवाला उसे भीगा कभी नहीं कह सकता । तो भी वह भीगा है, यह बात युक्ति से तो माननी ही पड़ेगी। इसी प्रकार कान, नाक, जीभ और त्वचा ये चार इन्द्रियाँ अपने विषयों से भिड़कर ज्ञान पैदा करती हैं, इसलिए प्रथम ही एक दो समय तक विषय का मन्द सम्बन्ध होते हुए भी ज्ञान प्रकट नहीं होता । तो भी, जबकि विषय का सम्बन्ध शुरू हो गया है तो ज्ञान का होना भी शुरू हो गया । यह बात युक्ति से अवश्य माननी पड़ती है। बस, इसी को अव्यक्त ज्ञान कहते हैं। जबकि इसमें विषय का स्वरूप ही स्पष्ट जानने में नहीं आता तो उत्तर विशेषता की शंका तथा समाधान रूप ईहादि ज्ञान तो हो ही कहाँ से सकते हैं ? इसीलिए अव्यक्त का अवग्रहज्ञान ही होता है; ईहादिक नहीं । मन का या चक्षु का ज्ञान विषय भिड़ने पर नहीं होता, किन्तु दूर रहते ही होता है, इसलिए वहाँ का ज्ञान होगा तो व्यक्त ही होगा, नहीं तो नहीं। अतएव, चक्षु व मन का ज्ञान अव्यक्तज्ञान नहीं हो सकता है। इस अव्यक्त ज्ञान का नाम व्यंजनावग्रह है। जबसे विषय व्यक्ततया भासने लगा हो, तबसे उस ज्ञान को व्यक्तज्ञान कहते हैं, इसका नाम अर्थावग्रह है । यह अर्थयुक्त अवग्रह सभी इन्द्रियों के व मन के द्वारा होता है। इसी 'अर्थ' नामक विषय के फिर ईहादिक भी होते हैं। अर्थ व व्यंजनरूप व्यक्ताव्यक्त विषयों के बारह प्रकार एक दूसरी तरह से और भी बताये हैं । वे यों कि, एक कोई विषय (1) बहुत-सा ज्ञानगोचर हुआ हो, (2) थोड़ा-सा हुआ हो, (3) युगपत् बहुत तरह का हुआ हो, (4) एक तरह का हुआ हो, (5) शीघ्रता से हुआ हो, (6) देरी से हुआ हो, (7) एक देश अव्यक्त रहने पर हो गया हो, (8) पूर्ण व्यक्त होने पर हुआ हो, (9) उसका वर्णन न सुनने पर भी हुआ हो, (10) वर्णन सुनने पर हुआ हो, (11) दृढ़ता से हुआ हो, (12) अस्थिरता से हुआ हो। इस प्रकार विषय व तज्जनित ज्ञान के बारह - बारह ये भी भेद हो सकते हैं। अनुक्त विषय श्रोत्रज्ञान में और उक्त विषय नेत्रज्ञान में कैसे सम्भव हो सकता है ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर ऊपर के अनुसार अर्थ करने से हो सकता है। श्रोत्रज्ञान में अनुक्त का अर्थ ईषत् अनुक्त करना चाहिए। अथवा, उक्त का अर्थ से लक्षणादि द्वारा वर्णन किया गया, ऐसा कहना चाहिए। नाममात्र सुनने 1. जीवतत्त्व नामक दूसरे अध्याय में इन्द्रिय व मन के जुदे जुदे विषय बताएँगे । 2. ‘अवग्रहादिसम्बन्धात्कर्मनिर्देश:' इस वार्तिक के कथन से बहु आदि को कर्म मानना चाहिए। 'क्वचिच्चिरेण' इस आगे के वचन से यह भी सिद्ध होता है कि क्षिप्र-चिर आदि कुछ शब्द क्रियाविशेषणों को भी कर्म में ग्रहण करते हैं - यह बात शब्देन्दुशेखर आदि व्याकरणों में खुलासा की है। इसलिए कर्म तथा क्रियाविशेषण कहने से कोई परस्पर विरोध नहीं मानना चाहिए। कुछ लोग 'चिरेण' आदि शब्दों को भी विषय का ही विशेषण कहते हैं परन्तु वह भूल है । 3. व्यंजनावग्रह की बहु आदि बारह संख्या को चार इन्द्रियसंख्या से गुणित करने पर 48 भेद व्यंजनावग्रह के होते हैं । अर्थज्ञान के अवग्रह - ईहादि चारों भेद होना सम्भव है इसलिए अवग्रहादि की चार संख्या से गुणने पर अर्थज्ञान के चार भेद होंगे; इन चार भेदों को बहु आदि बारह संख्या से गुणा करने पर 48 भेद होंगे; 48 को छह इन्द्रियसंख्या से गुणित करने पर 288 भेद होते हैं। इस प्रकार व्यंजन व अर्थरूप मतिज्ञान के मिलकर अधिकतम 336 भेद हो सकते हैं। ये सभी भेद एक अनुभव - ज्ञान के होते हैं। अनुभव के विषय से अनुमानादि ज्ञानों का विषय जुदा नहीं रहता । पूर्वानुभूत विषय की ही अनुमानादि ज्ञानवृत्तियाँ समझी जाती हैं। इसीलिए मतिज्ञान के भी 336 से अधिक भेद नहीं हो सकते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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