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________________ प्रथम अधिकार :: 9 ऐसी कल्पना केवल मुख्य पदार्थ के तुल्य आकृति विशेष में ही होती हो ऐसा नहीं है, अतदाकार वस्तुओं में भी लोगों की ऐसी भावना हो उठती है, इसलिए मात्र सदृशता को स्थापना- निक्षेप का कारण नहीं समझना चाहिए; मनोभावना भी इसका कारण है। जनसमुदाय की यह मानसिक भावना जहाँ हो जाती है, वहीं स्थापना - निक्षेप मानना चाहिए। द्रव्य निक्षेप का लक्षण - भाविनः परिणामस्य यत्प्राप्तिं प्रति कस्यचित् । स्याद् गृहीताभिमुख्यं हि तद्रव्यं ब्रुवते जिनाः ॥ 12 ॥ अर्थ - किसी वस्तु में उत्तर - कालवर्ती होनेवाली जिस पर्याय की तैयारी हो रही हो उस वस्तु को उसी उत्तरकालवर्ती पर्याय के नाम से कहना सो द्रव्य - निक्षेप है, ऐसा श्रीजिन भगवान के उपदेश का सारांश समझना चाहिए। यह लक्षण एक उत्तरवर्ती पर्याय की अपेक्षा से कहा गया है; वास्तव में यह निक्षेप नैगम-नय का विषय है। आगे चलकर नैगम-नय के तीन भेद कहेंगे । वे तीनों ही विषय द्रव्यनिक्षेप के द्वारा संगृहीत हो जाने चाहिए, इसलिए हम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण ऐसा कहते हैं - जिस किसी अनुपस्थित पर्याय की किसी वस्तु में योग्यता देखकर उस अनुपस्थित पर्याय के नाम से उस वस्तु को कहना द्रव्यनिक्षेप है। अनुपस्थित और तीसरा वह अनुपस्थित जो तैयार तो होने लगा हो, किन्तु परिपूर्ण न हुआ हो। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-राजगद्दी से उतर जानेवाले को राजा मानना, दूसरा आगामी राजा बननेवाले राजपुत्र को राजा मानना, वह तीसरा राजगद्दी के लिए जिसकी तैयारी चल रही हो उसे राजा कहना । इन तीनों उदाहरणों में से ऐसा एक भी नहीं है कि जो वर्तमान समय में पूरा उपस्थित हो, इसलिए इस संकल्प को अनुपस्थित विषय का बतलाने वाला माना गया है। यह संकल्प पहले की तरह सत्य इसलिए है कि इसका उपयोग भी सर्वसम्मत है । जिसके द्वारा सर्वसम्मत व्यवहार हो सकता हो वह भी यदि असत्य मान लिया जाए तो सत्य पदार्थ की दूसरी पहचान क्या हो सकती है ? भाव निक्षेप का लक्षण - वर्तमानेन यद्-येन' पर्यायेणोपलक्षितम् । द्रव्यं भवति भावं तं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ॥ 13 ॥ अर्थ - जिस वर्तमान पर्याय से वस्तु युक्त हो, उसी पर्याय के नाम से उस वस्तु का बोलना भाव निक्षेप है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं, अर्थात् किसी वस्तु की पर्याय जैसे पूर्ण उपस्थित हो वैसे अर्थवाला उस वस्तु का नाम रख लें सो भावनिक्षेप है । तत्त्व निश्चय के साधन Jain Educationa International तत्त्वार्थाः सर्व एवैते सम्यग्बोधप्रसिद्धये । प्रमाणेन प्रमीयन्ते नीयन्ते च नयैस्तथा ॥ 14 ॥ 1. यत्नेन इति पाठ भेदः । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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