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________________ 10 :: तत्त्वार्थसार अर्थ-तत्त्व सात हैं यह बात पहले कह चुके हैं । इन तत्त्वों के अर्थ चार निक्षेपों द्वारा चारचार प्रकार से हो सकते हैं, इस तरह यदि भेदों की अपेक्षा देखें तो सात के चौगुने अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। ये अट्ठाईस भी तत्त्वार्थ ही हैं। इनके जो उत्तर भेद तथा प्रभेद होंगे उन सबको भी तत्त्वार्थ ही कहना चाहिए, परन्तु उनकी गणना इन्हीं में हो जाती है । यदि इनका प्रमाण के द्वारा निश्चय किया जाए तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है । प्रमाण से निश्चय हो जाने पर नाना नयों द्वारा भी विविध प्रकार से इनका निश्चय किया जाता है। इस प्रकार तत्त्वपरीक्षा के लिए प्रमाण एवं नय मुख्य साधन हैं । दूसरे कुछ अमुख्य भी साधन हैं, परन्तु उन्हें अधिकार के अन्त में कहेंगे। प्रमाण का लक्षण व भेद सम्यग्ज्ञानात्मकं तत्र प्रमाणमुपवर्णितम् । तत्परोक्षं भवत्येकं प्रत्यक्षमपरं पुनः ॥ 15 ॥ अर्थ - प्रमाण का अर्थ 'निर्दोष ज्ञान' ऐसा माना गया है। इस प्रमाण के प्रत्यक्ष व परोक्ष ये दो साधारण भेद हैं। सर्वानुभूत होने से 'परोक्ष' पहला भेद समझना चाहिए और 'प्रत्यक्ष' दूसरा भेद है । वास्तविक प्रत्यक्ष का अनुभव विशिष्ट वीतराग ज्ञानियों को ही होता है । परोक्ष ज्ञान का लक्षण - समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत् । पदार्थानां परिज्ञानं तत्परोक्षमुदाहृतम्॥16॥ अर्थ- ' अक्ष' 'यह नाम आत्मा का हो सकता है । आत्मा के अतिरिक्त और भी दूसरे कारण जिस ज्ञान की उत्पत्ति होने में लगते हों उस ज्ञान को परोक्ष कहा है। यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष की तरह वास्तविक पदार्थों का ही होता है, परन्तु अन्य निमित्त कारणों के अधीन इसकी उत्पत्ति होने से यह पूरा विशद नहीं हो पाता; यही इसकी परोक्षता है। उन इतर कारणों के उदाहरण - अनुमानजनित अग्निज्ञान के समय जैसे धुआँ और इन्द्रियजन्य ज्ञानों के समय इन्द्रियाँ । इन्द्रियों को उपात्तकारण और धुआँ आदि को अनुपात्त कारण कहा है। जाननेवाले के साथ से जुदे न रहनेवाले का नाम उपात्त या मिलित अथवा संगृहीत है । जो शरीर व आत्मा से जुदा रहकर ज्ञानोत्पत्ति सहायता दे उसे अनुपात्त या असंगृहीत कारण समझना चाहिए । मन सहित जीवों को कोई भी ज्ञान हो, सभी में इन्द्रिय व मन की जरूरत तो लगती ही है, परन्तु Jain Educationa International 1. प्रमाणों का भी अधिक खुलासा 37वें श्लोक के अन्तर्गत करेंगे। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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