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________________ 4:: तत्त्वार्थसार का अन्तर्भाव इन्हीं में हो जाता है। आठ कर्म आठ गुणों को घातते हैं, इसलिए आठ गुणों की प्राप्ति कर लेना मोक्ष है और संक्षेप से कहें तो आत्मा को शुद्ध बना लेना मोक्ष है, परन्तु उसी शुद्धि को भिन्नभिन्न करके कहते हैं तो वह सम्यग्दर्शन आदि तीन प्रकार की ठहरती है। ये तीनों मोक्ष के स्वरूप भी हैं तथा मोक्ष होने के कारण भी हैं, इसलिए इन तीनों को ही इस ग्रन्थ में मुख्य माना गया है। मोक्ष के विषय में इन्हें कार्य-कारण दोनों प्रकार से मानना सच्ची श्रद्धा के अधीन है। तत्त्वों के कहने का हेतु श्रद्धानाधिगमोपेक्षा विषयत्वमिता ह्यतः। बोध्याः प्रागेव तत्त्वार्था मोक्षमार्ग बुभुत्सुभिः॥5॥ अर्थ-जीवादि तत्त्वों का ही सम्यक् श्रद्धान तथा ज्ञान, चारित्र होना मोक्ष का कारण है, अर्थात् सच्ची श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र के विषय अथवा आलम्बन जीवादि तत्त्व हैं और श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र की पूर्ण प्राप्ति को मोक्ष का साधन माना जाता है। तो फिर, जिन्हें मोक्ष के कारण समझने की उत्कंठा हो रही हो, उन्हें सबसे पहले तत्त्वार्थ को समझ लेना उचित है। यथार्थ तत्त्वों के नाम जीवोऽजीवात्रवौ बन्धः संवरो निर्जरा तथा। मोक्षश्च सप्त तत्त्वार्था मोक्षमार्गेषिणामिमे॥6॥ अर्थ-यहाँ ज्ञानादि के सत्य विषय का नाम तत्त्वार्थ है। 1. जीव, 2. अजीव, 3. आस्रव, 4. बन्ध, 5. संवर, 6. निर्जरा और 7. मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ के भेद हैं। इन जीवादि सातों तत्त्वार्थों के उत्तर भेद बहुत से होते हैं, परन्तु उन भेदों को कहाँ तक गिनाते रहें? इसलिए ये सात सामान्य भेद इस प्रकार के किये हैं कि इनमें सभी तत्त्वों का तथा भेद-प्रभेदों का संग्रह हो सके। आगे चलकर इनका लक्षण कहेंगे। उन लक्षणों के देखने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इन भेदों से कोई भी पदार्थ का भेद जुदा नहीं रहता। यद्यपि सात भेदों से भी कम भेद किये जा सकते हैं और तब भी सभी तत्त्वों का समावेश हो सकता है। जैसे कि 'सत्ता' ऐसा एक तत्त्व मानने से यावत् तत्त्वों का संग्रह हो सकता है, क्योंकि जितने पदार्थ या तत्त्व संसार में सम्भव होंगे उनमें सत्ता-धर्म अवश्य ही रहेगा। सत्ता नाम अस्तित्व या मौजूदगी है। जिसका जग में अस्तित्व नहीं है वह कोई चीज ही नहीं हो सकती है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि एक 'सत्ता' तत्त्व मानने से यावत् तत्त्वों का समावेश हो सकता है। यदि किसी को यह विचार उत्पन्न होता हो कि सत्ता तो केवल साधारण धर्म है। उसको एक तत्त्व मान लेने पर भी विशेषरूप का वस्तुज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए जिनसे कुछ विशेष बोध हो सके ऐसे तत्त्वों के भेद करना उचित है। तो दो तत्त्व मान लीजिए-एक जीव, दूसरा अजीव। इन दो भेदों के मान लेने से तत्त्वों का जीवाजीवरूप से विशेष ज्ञान भी हो सकता है और तत्त्वों की संख्या भी नहीं बढ़ती है; एवं संसार के समस्त तत्त्वों का समावेश भी हो सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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