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________________ प्रथम अधिकार :: 3 का नाम ही चारित्र है, इसलिए कार्यसिद्धि में चारित्र की सबसे बड़ी आवश्यकता है। रही यह बात कि, केवल चारित्र से ही कार्य की सिद्धि क्यों न मानी जाए ? इसका उत्तर यह है कि ज्ञान के बिना चारित्र का यथोचित विनियोग होना असम्भव है और श्रद्धान के बिना चारित्र का टिकना तथा सुदृढ़ होना असम्भव है, इसीलिए तीनों को ही कार्य के साधक मानना उचित है । यदि साक्षात् कार्य साधने की तरफ विचार करना हो तो केवल चारित्र को कार्यकारी मानना उचित है । मोक्षप्राप्ति के विषय में भी यही बात है । वहाँ चारित्र से ही कर्मबन्धन व कर्मकलंक का नाश होना माना गया है। जो 'ज्ञानादेव मोक्ष: ' ऐसा कहते हैं उनका भी तात्पर्य चारित्र के निषेध में नहीं है। जैसा कि जैन सिद्धान्त में भी सम्यग्ज्ञान को हितप्राप्ति व अहित - परिहार करनेवाला माना है, परन्तु ज्ञान से हित की प्राप्ति तथा अहित का परिहार होने का अर्थ यही उचित है कि वह हित-प्राप्ति का तथा अहित - परिहार का यथोचित दर्शक है । जो लोग ज्ञान से हित-प्राप्ति होने का अर्थ यह मान रहे हों कि वह हित को उत्पन्न कर देता है, तो भूल किसी को मिलाना या हटाना, यह काम क्रिया का है, न कि ज्ञान का । 1 मोक्ष प्राप्त करने में जिस प्रकार ज्ञान - चारित्र की बड़ी आवश्यकता है। उसी प्रकार अथवा उससे भी कहीं बढ़कर सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन का रूढि अर्थ जैन सिद्धान्त में श्रद्धान अथवा विश्वास किया है। जिसे वास्तविक मार्ग का ज्ञान होने पर भी श्रद्धान उत्पन्न नहीं होता वह उस ज्ञान का फल कभी उठा नहीं सकता । यद्यपि सम्यग्ज्ञान का होना श्रद्धान बिना नहीं है; और इसीलिए सम्यग्दर्शन न गिनाया जाए तो भी कुछ हानि नहीं है; परन्तु लौकिक व्यवहार की तरफ देखते हैं तो संशयादि रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। इसलिए ज्ञान की पूर्णता व वास्तविकता प्रकट करने के लिए सिद्धान्तवेत्ता आचार्यों ने सम्यक् श्रद्धान को मोक्ष का पहला कारण बताया है। यदि हम निश्चय की तरफ झुकें तो मोक्ष के कारणों में तीन या दो भेद भी नहीं रहते हैं । जीव का शुद्ध स्वरूप ज्ञान है । अथवा जीव शुद्ध ज्ञानमय है। उसमें जितनी मलिनता वास करती हो वही और उतना ही संसार है और वह सर्व मलिनता नष्ट हो जाने का नाम मोक्ष है। ज्ञान की सत्ता रहने के सिवाय चारित्र का दूसरा अर्थ नहीं है । और भी जो वीर्यादिक गुण कहे जाते हैं वे सब ज्ञान के ही रूपान्तर हैं; अथवा ज्ञान की सत्ता के अधीन उनकी सत्ता है। ज्ञान ही जीव का एक ऐसा गुण है कि जो कहा, सुना व जाना जाता है। बाकी सब कल्पना ज्ञानाधीन है, इसीलिए ज्ञान सविकल्पक है और शेष 'गुण निर्विकल्पक हैं। संक्षेप में, ज्ञान की शुद्धता करने को ही मोक्षमार्ग कह सकते हैं और वह शुद्धता अखंड एक प्रकार है, परन्तु इस निश्चय का आश्रय लेने पर वर्णनीय मूर्त स्वरूप प्राप्त नहीं हो सकता और जब तक वर्णन किया न जाए तब तक उपदेश की घटना कैसे हो सकती है ? इसीलिए मोक्षमार्ग में कहने योग्य मुख्य तीन अंश विभक्त किये हैं, अत एव इस भेदप्रधान व्यवहार की श्रेणी में मोक्षकारण के अंश न तो तीन से कम ही हो सकते हैं और न अधिक ही हो सकते हैं 1 ज्ञान के भी उत्तरभेद बहुत हैं और श्रद्धान तथा चारित्र के भी उत्तरभेद बहुत हैं; परन्तु उन सबों 1. 'हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाज्ञानिना क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः ॥' 'संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञा न ह्येकचक्रेण रथः प्रयाति अन्धश्च पंगुश्च वने प्रवृत्तौ तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥' (रा.वा., 1/1, वा. 49 ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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