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________________ 2:: तत्त्वार्थसार अर्थ-यह बात आगम तथा न्याय-युक्तियों से सुनिश्चित हो चुकी है कि संसारदुःखों से छूटने के लिए भव्य प्राणियों को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, इन तीनों को परिपूर्ण रूप प्राप्त करना चाहिए। इन्हीं तीनों की परिपूर्णता उनके मुक्त होने में सहायक हो सकती है। कितने ही विद्वानों ने अपनी कल्पना से मोक्षोपाय अन्यान्य प्रकार से भी बताये हैं, परन्तु उन सभी प्रकारों में न्याय-युक्तियों से दोष आते हैं। यदि कोई निर्दोष उपाय है तो एकमात्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एक साथ इन तीनों की परिपूर्णता ही है। इस बात की परीक्षा के लिए, ग्रन्थकार आगे स्वयं इन तीनों कारणों का विशद स्वरूप क्रम से कहनेवाले हैं और यह भी अभी दिखानेवाले हैं कि परीक्षा का साधन क्या है? सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र के सम्बन्ध में इतना अभी समझ लेना चाहिए कि निश्चय से ये तीनों आत्मा के अविनाभावी गुण' हैं। श्रद्धान जब प्रकट होता है तभी ज्ञान की मलिनता हटकर ज्ञान शुद्ध हो जाता है और आत्मा की वीतरागता बढ़ानेवाला चारित्र प्रकट हो जाता है। चारित्र आत्मस्वरूप का अनुभव कराने में लगता है, अर्थात् अनुभव करने में प्रवृत्ति होने का नाम ही चारित्र है। उस प्रवृत्ति का आत्मा में लगना और विषयों से हटना-इस तरह यह दो प्रकार का है। जो प्रवृत्ति होगी वह चेतना के उपयोग करने में ही होगी, इसलिए सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र ये तीनों शुद्ध आत्मा के ही रूप या नाम हैं, दूसरी चीज नहीं हैं। इसका ठीक पता तो आत्मा का अनुभव करने से ही लगेगा। यह निश्चय रत्नत्रय का कथन है। रत्नत्रय का लक्षण श्रद्धानं दर्शनं सम्यग्ज्ञानं स्यादवबोधनम्। उपेक्षणं तु चारित्रं तत्त्वार्थानां सुनिश्चितम्॥4॥ अर्थ-सत्य तत्त्वों के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है। सत्य तत्त्वों के ठीक समझ लेने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। उन्हीं सत्य तत्त्वों में से राग-द्वेष छूट जाने को सम्यक्चारित्र कहा है, यही वास्तविक मोक्षमार्ग है। इन तीनों में से जब तक एक की भी कमी रहती है तब तक मोक्ष का मिलना कठिन है। देखो संसार, मानों एक नीरोग अवस्था से उलटी रोग-अवस्था है। रोग का उपाय औषधि को जान लेने पर भी यद्वा-तद्वा खा लेना, अथवा औषधि को औषधि समझकर विश्वास करके बैठ जाना—इतने से रोग नहीं हट सकता। सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाए तो ज्ञात होगा कि रोग दूर करने में अथवा अन्य किसी भी कार्य के सम्पादन में ऊपर के तीनों प्रकार अत्यावश्यक हैं। बस, इसीलिए मुक्त होने में भी उपाय रूप सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र ये तीनों को ही उपयोगी समझना चाहिए। ___ केवल उपाय का समझ लेना अथवा श्रद्धा करके बैठे रहना, इसको तो प्रायः कोई भी कार्यकारी नहीं मानेगा। कार्य की सिद्धि मात्र ज्ञान तथा श्रद्धान के अधीन नहीं है, बल्कि क्रिया के अधीन है। क्रिया 1. रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्ण-दवियम्हि। तम्हा तत्तियमइयो, होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा॥ (द्र.सं., गा. 40)। ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकाङ्क्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम्॥ (आ.नु., श्लो. 174)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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