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________________ श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि विरचित तत्त्वार्थसार धर्मश्रुतज्ञान हिन्दी टीका सहित प्रथम अधिकार मंगलाचरण 'जयत्यशेषतत्त्वार्थ-प्रकाशि-प्रथितश्रियः। मोह-ध्वान्तौघ-निर्भेदि-ज्ञानज्योति-र्जिनेशिनः॥1॥ अर्थ-जिनकी महिमा समस्त सम्यक् तत्त्वों के प्रकाशित करने से विख्यात हो चुकी है तथा सघन मोह अन्धकार को जिनकी ज्ञानज्योति ने नष्ट किया है, उन जिनेन्द्र भगवान की ज्ञानरूप ज्योति जग को सदा मंगलरूप हो। ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्षमार्गकदीपकः। मुमुक्षूणां हितार्थाय प्रस्पष्टमभिधीयते॥2॥ अर्थ-अब हम यह 'तत्त्वार्थसार' नामक ग्रन्थ रचते हैं। इसमें तत्त्वार्थ के स्वरूप का सारांश कहेंगे, अत एव इसे मोक्षमार्ग प्रकाशित करने के लिए एक अनुपम दीपक समझना चाहिए। संसार के दुःखों से मुक्ति चाहनेवाले भव्य जीव इस ग्रन्थ के अध्ययन से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकेंगे, क्योंकि दुःखमोचन का ही उपाय इसमें विशदरूप से कहा जाएगा। मोक्षमार्ग का स्वरूप स्यात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रितयात्मकः। मार्गो मोक्षस्य भव्यानां युक्त्यागमसुनिश्चितः॥3॥ 1. जयत्वशेष-ऐसा भी पाठ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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