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________________ प्रथम अधिकार ::5 इस प्रकार जब देखते हैं तो तत्त्वों के सात भेद करना निरुपयोगी जान पड़ता है और यदि विशद बोधार्थ सात भेद किये, तो सात ही क्यों? प्रमाण-प्रमेय, नय-निक्षेप आदि और भी कई भेद हो सकते हैं; जिससे कि सात की संख्या न रहकर अधिक संख्या हो जाना सम्भव है। इसका उत्तर यह है कि, मोक्षमार्ग का विचार करने में उक्त सात भेदों की विशेष आवश्यकता है। इन सात भेदों का विचार करने से मोक्ष का मार्ग स्पष्ट व सुगमतया समझा जा सकता है, अर्थात् मोक्षोपाय के समझ लेने में अधिक भेदों की मुख्यतया आवश्यकता नहीं है और सत्ता आदि एक-दो भेद करने से तो मोक्षोपाय का ज्ञान करने में कुछ कहने योग्य सहायता ही नहीं हो सकती है। देखिए सत्ता या जीवाजीव का ज्ञान होने पर भी मोक्ष तथा संसार-स्वरूप के विचार की जागृति होना नियत नहीं है। जिसको संसार का बन्धन व उससे मुक्ति होने में विशेषता नहीं जान पड़ती, जिसको संसारदुःखों से मुक्त होने की अभिलाषा भी उत्पन्न नहीं हुई हो; उसे भी वस्तुओं के सत्तास्वभाव का तथा जीवाजीवपने का ज्ञान रहना सम्भव है। जो अज्ञानी जन हैं वे भी इतना समझते हैं कि हम तथा हमारे समान चेतनापूर्वक क्रियाओं के करनेवाले सभी जीव हैं, अथवा हमारे वर्ग में समाविष्ट होने योग्य हैं और जो माटी, पत्थर, पानी, पवन आदि चेतना-मिश्रित क्रिया नहीं करते वे हमसे जुदे अजीव हैं अथवा जड़ वर्ग में संग्रहीत करने योग्य हैं। पर, इतना ज्ञान होने पर भी मन में मोक्ष व मोक्षोपायों की कल्पना जागृत होने का नियम नहीं है। मोक्ष तथा इस ज्ञान का कोई असाधारण सम्बन्ध ही नहीं है तो इतने तत्त्वज्ञान से मोक्षोपाय की तरफ झुकाव क्यों होने लगा? इसलिए तत्त्वों के आस्रवादि भेद करना आवश्यक है। यदि सात तत्त्वों से अधिक कुछ कल्पना की जाए तो उसका समावेश इन सातों में ही हो सकता है। जैसे कि, जीव के उत्तर भेदों में संसारी, मुक्त आदि भेदों का संग्रह होगा। आकाश, कालादि द्रव्य भेदों का संग्रह अजीव तत्त्व में होगा। पुण्य, पाप या शुभाशुभादि कर्मभेदों का संग्रह आस्रव तथा बन्धतत्त्व में हो सकेगा। यदि प्रमाण, प्रमेय, नय, निक्षेपादि भेदों को अधिक जोड़ने की आकांक्षा उत्पन्न हुई तो उसे भी एक अलग प्रकार से कह दिया है। इसका कारण यह है कि तत्त्व व तत्त्वज्ञान के साधनभत प्रमाण, नय, निक्षेपों में ज्ञान तथा ज्ञेयरूप स्वभाव-भेद होने से एकत्र संग्रह नहीं किया गया है। सात तत्त्व केवल ज्ञेयस्वभाव की मुख्यता से एकत्र गिनाये गये हैं और जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे तत्त्वज्ञान के साधन होने से ज्ञान या साधन के तत्त्वों के साथ न जोड़कर साधनतया दिखाये हैं अर्थात् तत्त्व तो केवल ज्ञेय हैं, किन्तु प्रमाणादि ज्ञेय भी हैं और ज्ञानरूप भी हैं, यही इनके वर्गीकरण का हेतु है। प्रमेय' तो कोई इनसे जुदी चीज ही नहीं है कि जिसके लिए सात संख्या का भंग करना पड़े। अब रही यह आशंका कि सात तत्त्वों की कल्पना मोक्षमार्ग में उपयोगी क्यों है? इसका उत्तर जीवों की प्रत्यक्षसिद्ध दुःखदशा छुड़ा देना आचार्यदेव को अभीष्ट जान पड़ता है। दुःख, यह एक विकारी दशा है, विकार का होना परसंयोग बिना नहीं होता, अतएव शुद्धता के साधनों से विकार हट सकता है। बस, इसी विचार के आधार पर इस ग्रन्थ की व इन तत्त्वों की विवेचना की गयी है। देखिए, जिसकी दशा को अशुद्ध से शुद्ध करना इष्ट है उसका नाम तो अवश्य संगृहीत होना ही चाहिए और उस संग्रह में भी सबसे पहले दिखाना उचित है। जो सवर्ण को इतर विकारों से शद्ध करन चाहता हो उसके हृदय में क्या सुवर्ण की सांगोपांग कल्पना मुख्यतया व प्रथम ही उपस्थित नहीं होगी? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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