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________________ 326 :: तत्त्वार्थसार 10. संख्या, 11. अल्पबहुत्व, 12. अन्तर-इन बारह बातों से सिद्धों में परस्पर उपचरित भेद सिद्ध होता है। कालादिकों के विनियोग नियम प्रत्युत्पन्ननयादेशात् ततः प्रज्ञापनादपि। अप्रमत्तैर्बुधैः सिद्धाः साधनीया यथागमम्॥42॥ अर्थ-प्रत्युत्पन्न नयों की अपेक्षा से और प्रज्ञापन नयों की अपेक्षा से सावधान विद्वान् मनुष्य आगमानुसार कालादिकों का विनियोग कर के सिद्धों में परस्पर भेद सिद्ध कर सकते हैं। ऋजुसूत्र' नय को तथा तीनों शब्द नयों को प्रत्युत्पन्न नय कहते हैं। शेष तीनों नयों को प्रत्युत्पन्न भी कहते हैं और प्रज्ञापन नय भी कहते हैं। (1) काल का विनियोग सिद्ध होने का काल देखकर सिद्धों में परस्पर भेद मानना कालकृत भेद हैं। सामान्य रूप से देखें तो हर एक समय में जीव सिद्ध होता है। अथवा यों कह सकते हैं कि कोई उत्सर्पिणी में व कोई अवसर्पिणी में सिद्ध होता है। एक समय में सिद्ध होना ऐसा कहना प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से ठीक है। प्रज्ञापन नय यहाँ पर भूत अथवा भावी हो सकता है। उसके भी फिर दो प्रकार से विनियोग होंगे, जन्म से और संहरण से। जन्म नाम उत्पत्ति, संहरण नाम मरण या अपहरण का है। जन्म से देखें तो अवसर्पिणी के तीसरे काल के अन्त भाग में जन्मा हुआ अथवा चौथे काल में जन्मा हुआ सिद्ध होता है। जिसका जन्म तीसरे काल में हुआ वह तीसरे में भी सिद्ध हो सकता है और चौथे में भी सिद्ध हो सकता है। चौथे काल में उत्पन्न हुआ चौथे में सिद्ध हो सकता है और पाँचवें में भी सिद्ध हो सकता है। परन्तु पाँचवें काल में जन्मनेवाला सिद्ध नहीं हो सकता है। पहले, दूसरे तथा छठे काल में जन्मनेवाला भी सिद्ध नहीं होता है। यह जन्म की अपेक्षा सिद्ध होने का काल विभाग हुआ। निर्वाण की अपेक्षा से चाहे जिस काल में निर्वाण करनेवाला सिद्ध हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि विदेह में सदा ही चतुर्थ काल रहता है और मुक्त होने का क्रम भी सदा ही जारी रहता है। वहाँ का जन्मा हुआ जीव यदि सिद्ध होने की सन्मख अवस्था होने पर भरत. ऐरावत में प्रथमादि कालों के स दिये जाएँ तो उस काल में उसका निर्वाण हो सकता है, परन्तु यह बात उपसर्ग की अपेक्षा से सँभवती है। इस प्रकार कालकृत भेद सिद्धों में परस्पर होता है। (2) लिंग का अर्थ वेद भी है और निर्ग्रन्थ तथा सग्रन्थ वेश भी है। वेद दो हैं—भाववेद और द्रव्यवेद। भूतनय की अपेक्षा से तीनों भाववेद सहित की मुक्ति होती है। कोई किसी भाववेद सहित वेद का नाश करके मुक्त होता है और कोई किसी भाववेद सहित । द्रव्य वेद सभी का पुरुष वेद ही हो सकता है। ऋजुसूत्र नय से देखें तो सब भाववेद नष्ट होने पर मुक्ति होती है और द्रव्यवेद अन्तपर्यन्त रहता है। लिंग का अर्थ वेश किया जाए तो भूतनय से सग्रन्थ लिंगी भी मुक्त होता है। ऋजुसूत्र नय से निर्ग्रन्थ लिंगी ही मुक्त होता है। 1. ऋजुसूत्रनयः शब्दभेदाश्च त्रयः प्रत्युत्पन्नविषयग्राहिणः। शेषा नया उभयभावविषयाः। रा.वा., 10/9, वा. 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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