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________________ आठवाँ अधिकार :: 325 अर्थ-नामकर्म का उच्छेद होने से आत्मा सूक्ष्मत्व गुणधारी हो जाता है। अगुरुलघुत्व (सातवाँ) गोत्रकर्मसमुच्छेदात् सदाऽगौरव-लाघवाः। अर्थ-गोत्रकर्म के अभाव से गुरुता और लघुता-ये दोनों ही बातें हटकर अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है। सन्तान क्रम से जो जीवों में आनुवंशिक संस्काराधीन प्रवृत्ति होती है उसे गोत्र कहते हैं। उसके सामान्य भेद दो हैं-उच्चता और नीचता। इसी उच्चता अथवा नीचता की प्राप्ति में जो कर्म असाधारण सहायक होता है उसे गोत्रकर्म कहते हैं। इस गोत्रकर्म का निर्मूल नाश हो जाने से वंशानुविधायी उच्चत्व भी नष्ट हो जाता है और नीचत्व भी नष्ट हो जाता है। इसी अवस्था विशेष को अगुरुलघुत्व कहते हैं। बलगुण (आठवाँ) अन्तरायसमुच्छेदादनन्तवीर्यमाश्रिताः॥40॥ अर्थ-अन्तराय कर्म का नाश हो जाने से परिपूर्ण बल प्रकट होता है। किसी प्रकार की निर्बलता अथवा निर्बलता सम्बन्धी कार्य की अपूर्णता न दिख पड़ने से इस गुण का सद्भाव माना जाता है। निर्वाणरूप सामान्य अवस्था का यह एक भेद है। इस प्रकार निर्वाण अवस्था में प्रकट होनेवाले ये आठ विशेष स्वभाव ऐसे हैं जो कि संसारावस्था में कर्म के सम्बन्ध से नष्टप्राय होकर रहते हैं। जो गुण अथवा स्वभाव कर्मों से नष्ट नहीं होते, वे यहाँ इसलिए नहीं गिनाये हैं कि उनके द्वारा निर्वाण की विशेषता जानने में कोई सहायता नहीं होती। इसका कारण यह है कि वे संसारावस्था में भी रहते हैं और सिद्धावस्था में भी रहते हैं। इन दोनों ही प्रकार के स्वभाव गुणों के उत्तरभेद देखें तो अनन्त दिख पड़ते हैं। ___ सिद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर जीवों के सभी गुण स्वभाव बाधक-घातक न रहकर पूर्ण रूप से और एक से प्रकट हो जाते हैं। इसीलिए सिद्ध जीवों में साक्षात् देखा जाए तो परस्पर में कोई अन्तर नहीं होता। समान होने पर भी प्रदेशादिक जुदे-जुदे तो रहते ही हैं फिर भी समानता के कारण उन्हें जुदेजुदे कहना नहीं बनता, क्योंकि, जुदेपने का व्यवहार विसदृश वस्तुओं में ही होता है और जुदापन करने का कारण विसदृशता ही होती है। सिद्धावस्था में किसी भी प्रकार की विसदृशता न रहने से जुदेपन का व्यवहार कैसे हो? इस आकांक्षा को मिटाने के लिए ग्रन्थकार उपचरित जुदापन सिद्ध करने वाले कुछ कारण दिखाते हैं। वे कारण बारह प्रकार से दिखाये गये हैं। सिद्धों में भेद-साधक कारणों के नाम काल-लिंग-गति-क्षेत्र-तीर्थ-ज्ञानावगाहनैः। बुद्धबोधित-चारित्र-संख्याल्पबहुत्वान्तरैः॥41॥ अर्थ-1. काल, 2. लिंग, 3. गति, 4. क्षेत्र, 5. तीर्थ, 6. ज्ञान, 7. अवगाहन, 8. प्रतिबोध, 9. चारित्र, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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