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________________ 324 :: तत्त्वार्थसार ज्ञानस्वभाव (पहला) ज्ञानावरणहानात्ते केवलज्ञानशालिनः। अर्थ-ज्ञानावरण कर्म का पूर्णनाश हो जाने से जीव को केवलज्ञान प्राप्त होता है। यह निर्वाण अवस्था का एक मुख्य स्वरूपविशेष है। दर्शन (दूसरा) दर्शनावरणोच्छेदादुद्यत्केवलदर्शनाः ॥ 37॥ अर्थ-दर्शनावरण का पूरा ध्वंस हो जाने से जीव केवलदर्शनयुक्त होता है यह मुक्ति का दूसरा विशेष स्वरूप है। अव्याबाध(तीसरा) वेदनीय-समुच्छेदादव्याबाधत्वमाश्रिताः। अर्थ-वेदनीयकर्म का नाश हो जाने से मुक्त जीवों में अव्याबाध नाम का तीसरा गुण प्रकट होता है। सम्यक्त्व (चौथा) मोहनीयसमुच्छेदात् सम्यक्त्वमचलं श्रिताः॥38॥ अर्थ-मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से अचल सम्यक्त्व गुण प्रकट होता है। यह निर्वाण का एक चौथा स्वभावविशेष है। मोह के भेद यद्यपि दर्शनमोह और चारित्रमोह ये दो होते हैं, परन्तु मोहित करना-ऐसा सामान्य अर्थ मानने से मोह एक ही कहा जाता है। उसी प्रकार उस मोह के अभाव से प्रगट होनेवाले गुण को भी सामान्यरूप से कहें तो मोह का उल्टा सम्यक्त्व हो जाता है। उसी के उत्तरभेद दर्शन व चारित्र हो जाते हैं। यहाँ पर सामान्य की विवक्षा होने से सम्यक्त्व-ऐसा एक गुण इसलिए कहा है। चारित्र का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है। इसी बात को ग्रन्थकार ने अचल विशेषण द्वारा सूचित किया है। अचलता अर्थात् मोह के सर्वसामान्य अभाव से ही प्रकट होनेवाला सम्यक्त्व है। केवल दर्शनमोहनीय के अभाव से जो सम्यक्त्व का प्रकाश होता है उसमें अचलता नहीं आ सकती है, इसीलिए चारित्र को जुदा न कहने पर भी चारित्रमोह के अभाव से होनेवाली अवस्था का ग्रहण हो जाता है। अवगाहन स्वभाव (पाँचवाँ) आयुःकर्मसमुच्छेदादवगाहनशालिनः। अर्थ-आयुकर्म का अभाव हो जाने से आत्मा अवगाहनत्व गुण को प्रकाशित करता है। सूक्ष्मत्व स्वभाव (छठा) नामकर्मसमुच्छेदात्परमं सौक्ष्यमाश्रिताः॥39॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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