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________________ आठवाँ अधिकार : 323 अर्थ - जिस प्रकार द्रव्यकर्मों की उत्पत्ति होने के साथ-साथ ही प्रदेश परिस्पन्द आदि रूप अशुद्धता कार्य शुरू हो जाते हैं उसी प्रकार कर्मबन्धन पूरा नष्ट होते ही जीव का संसारवास नष्ट हो जाता है और मोक्षस्थान की तरफ गमन हो जाता है । 1 अर्थात् शुद्ध गमन का कारण भवक्षय होना है और अशुद्ध प्रवृत्ति का कारण कर्म का सहवास सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो कारण कार्य का एक ही समय होता है, इसीलिए जीव का जैसे ही भव क्षीण हुआ कि है उसी समय ऊर्ध्वगमन कार्य शुरू हो जाता है । उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाश - तमसोरिह | युगपद्भवतो यद्वत् तद्वन्निर्वाणकर्मणोः ॥ 36 ॥ अर्थ - जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार के उत्पाद तथा नाश युगपत् होते हैं, उसी प्रकार कर्म का नाश और निर्वाण का उत्पाद युगपत् होते हैं । परस्पर विरोध रखनेवालों में यही नियम होता है कि एक नाश हो तो दूसरा उत्पन्न हो । अथवा किसी भी कार्य के कारण दो प्रकार के होते हैं; एक तो उसके साधक रूप, दूसरे बाधक अभावरूप। जो साधकरूप होते हैं वे कार्य के पूर्वक्षण में रह सकते हैं, परन्तु जो बाधक अभावरूप होते हैं वे जिस क्षण में उत्पन्न होते हैं उसी क्षण में कार्य सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ, प्रकाश अन्धकार का विरोधी है, इसलिए इन दोनों में यही नियम स्वयं सिद्ध बना हुआ है कि जब एक हो दूसरा न हो । अथवा तम प्रकाश का बाधक है और प्रकाश तम का बाधक है, इसलिए बाधकरूप तम का अभाव जिस क्षण में होगा उसी क्षण में निर्वाणावस्था का प्रादुर्भाव भी होगा । कर्मजन्य अवस्था को संसारावस्था कहते हैं । कर्म आठ हैं । संसारावस्था के भी इसीलिए आठ प्रकार किये जाते : (1) ज्ञानावरण के रहने से अज्ञानांश का होना - यह एक भेद हुआ। (2) दर्शनावरण के रहने से दर्शनांश का अभाव रहना - यह दूसरा भेद हुआ । (3) वेदनीय के रहने से आकुलता रहना अथवा व्याबाधा बनी रहना - यह तीसरा भेद हुआ । (4) मोहनीय के रहने से आत्मा का मोहित होकर रहना - यह चौथा भेद हुआ । (5) आयु के रहने से शरीर सहित स्थूल होकर रहना - यह पाँचवाँ भेद हुआ। (6) नामकर्म के रहने से अपने अवगाहन में न रहकर शरीरावगाहन में रहना - यह छठा भेद हुआ । (7) गोत्रकर्म के होने से पराधीन ऊँचपना या नीचपना रहना - यह सातवाँ भेद हुआ। (8) अन्तराय के रहने से निर्बल होकर रहना - यह आठवाँ भेद हुआ । इस प्रकार कर्मजन्य जीव की आठ अवस्थाएँ हो सकती हैं। इन्हीं आठ अवस्थाओं को समुदायरूप से कहा जाए तो एक असिद्धत्व अथवा संसार - यह नाम प्राप्त होता है। इन आठों विकारों के हट जाने से जो अवस्था होती है उसका सामान्य एक नाम निर्वाण है। विशेष नाम देखें तो आठ होंगे। आगे प्रत्येक नामों को क्रम से सहेतुक दिखाते हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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