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________________ आठवाँ अधिकार :: 327 (3) वर्तमान की अपेक्षा सिद्धगति में ही सिद्ध अवस्था होती है। नैगमनय से देखें, तो अनन्तरभव से देखनी चाहिए अथवा एक अनन्तर पूर्वभव से देखनी चाहिए। अनन्तर भव तो मनुष्यभव ही है। एकान्तरित भव से चारों गति हो सकती हैं। चारों गति से आकर मनुष्य होनेवाला सिद्ध हो सकता है। __ (4) ऋजुसूत्र नय से देखें तो अपने प्रदेशों में ही सिद्ध अवस्था होती है अथवा सिद्धक्षेत्र के आकाश क्षेत्र में सिद्ध होता है। भूतनय की अपेक्षा से पन्द्रह कर्मभूमियों का जन्मा हुआ जीव सिद्ध होता है। मरण की अपेक्षा से अढ़ाई द्वीप के व दोनों समुद्रों के बीच कहीं से भी सिद्ध हो सकता है। (5) कुछ जीव तीर्थंकर के रहते हुए सिद्ध होते हैं और कुछ पीछे से होते हैं-यह तीर्थ की अपेक्षा सिद्धों में भेद है। (6) मुक्त होने से पूर्व जो ज्ञान है वह प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा से तो एक केवलज्ञान ही होता है, परन्तु भूतपूर्व नय की अपेक्षा से किसी को मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय-ये चारों भी रह सकते हैं। जिसको जितने ज्ञान रहे हों, उसकी मुक्ति उतने ही ज्ञानपूर्वक हुई कहनी चाहिए। यह ज्ञान भेद से सिद्धों का भेद हुआ। (7) शरीर की ऊँचाई-नीचाई की अपेक्षा से अवगाहन है। सिद्ध होनेवाले जीवों में से कुछ का अवगाहन उत्कृष्ट होता है, कुछ का जघन्य होता है और कुछ मध्यवर्ती अवगाहनवाले होते हैं। मोक्षोपयोगी जघन्य अवगाहन साढ़े तीन हाथ का होता है। उत्कृष्ट सवा पाँच सौ धनुष का होता है। इसके बीच जितनी हीनाधिकता होगी वे सब मध्यम अवगाहन समझना चाहिए। इन अवगाहनों में भेद होने से सिद्ध जीवों का परस्पर में भेद किया जा सकता है। जघन्य अवगाहनावाले खड्गासन से ही सिद्ध होते हैं। (8) प्रतिबोध होने के दो मार्ग हैं। कोई तो स्वयं प्रतिबोध को प्राप्त होकर विरक्त होकर मुक्त होते हैं। कोई दसरों के उपदेश द्वारा प्रतिबद्ध होकर दीक्षा लेकर मक्त होते हैं। जो स्वयं प्रतिबद्ध होते हैं. उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं। जो परोपदेश सुनकर प्रतिबुद्ध होते हैं उन्हें बोधित अथवा बोधिबुद्ध कहते हैं। इन दो भेदों से भी सिद्धों में परस्पर भेद कहा जा सकता है। (9) किसकी किस चारित्र से सिद्धि हुई—इस दृष्टि से भी सिद्ध अवस्था में भेद आरोपित किया जा सकता है। सिद्धि होने के समय में देखें तब तो चारित्र में कोई भेद होता नहीं है। उस समय केवल यथाख्यातचारित्र अथवा अनिर्वचनीय शुद्धभावरूप परिणाम रहता है और वह सभी का एक-सा होता है। परन्तु पूर्वप्रज्ञापन नय की अपेक्षा से देखें तो चार अथवा पाँच चारित्रों से सिद्धि होती है। जिनको परिहारविशुद्धि चारित्र प्रकट नहीं होता उनको चार चारित्र प्राप्त होते हैं। जिन्हें परिहारविशुद्धि हो जाती है उनको पाँच चारित्र तक होते हैं। (10) एक-एक समय में सिद्ध होनेवाले जीवों की संख्या का विचार कर परस्पर भेद मानना सो संख्याकृत भेद हैं। सामान्यतः कम से कम एक समय में एक जीव सिद्ध होता है। विशेष रूप से एक समय में एक सौ आठ जीव भी सिद्ध हो सकते हैं। (11) अभी तक भेद के कारण दश कहे, एक आगे कहेंगे। उन प्रत्येक के विषय में परस्पर में संख्या की हीनाधिकता देखने को अल्प-बहुत्व कहते हैं। कालकृत अल्प-बहुत्व ऐसे देखना चाहिए कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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