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________________ 282 :: तत्त्वार्थसार होता है, परन्तु किसी विशिष्ट सुखी पुरुष को दृष्टिवाद के चौदह पूर्वो में से नौ प्रत्याख्यान नाम पूर्वतक तीर्थंकर केवली के समीप श्रुतज्ञान प्राप्त करने का सौभाग्य मिल गया हो तो उसे परिहारविशुद्धि नाम की ऋद्धि प्रकट हो जाती है, जिससे कि उसके शरीर से जीव-हिंसा न हो सके। बस, इसी का नाम परिहारविशुद्धि चारित्र है। यही आगे कहते हैं। परिहारविशुद्धि चारित्र का स्वरूप विशिष्टपरिहारेण प्राणिघातस्य यत्र हि। शुद्धिर्भवति चारित्रं परिहारविशुद्धि तत् ॥47॥ अर्थ-ऊपर जो निमित्त बता चुके हैं उसके द्वारा शरीर से जीववध होना छूट जाने के कारण जो प्राणिघात का विशिष्ट परिहार हो जाता है उससे आत्मा में एक अपूर्व शुद्धि उत्पन्न होती है, इसी का नाम परिहारविशुद्धि है। यह तीसरा चारित्र किसी विरले को ही प्राप्त होता है। शरीर-क्रिया करते हुए भी इससे पाप नहीं लगता है, इसलिए इसे प्रायश्चित की या छेदोस्थापन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सामायिक चारित्रवाला भी कभी-कभी छेदोपस्थापन की आवश्यकता न रखता हुआ ही नवें गुणस्थान तक जा सकता है, परन्तु उसका व्रतभंग हो जाना सम्भव है, इसीलिए सामायिक व छेदोपस्थापन की सत्ता नौवें तक सख से एक-सी रह सकती है। परिहारविशद्धि चारित्र सातवें तक ही होता है। यदि श्रेणी का आरोहण करना हो तो परिहारविशुद्धि छोड़कर, सामायिक-छेदोपस्थापन का अवलंबन लेना पड़ेगा, इसलिए यह मानना चाहिए कि उत्तरोत्तर गुणस्थानों की वृद्धि करते हुए केवलज्ञान की तरफ ले जानेवाले ये दो ही चारित्र हैं। परिहारविशुद्धि केवल प्राणिवध बन्द हो जाने से विशुद्ध माना जाता है और वह भी तब तक, जब तक कि छठे, सातवें में उतरने-चढ़ने की सम्भवना रहती है। श्रेणी पर चढ़नेवाले जीव को इस महत्त्व की कीमत नहीं रहती। वह स्वयं सब तरफ से अति विशुद्ध बनने लगता है। उसमें परिहारविशुद्धि की महिमा गर्भित हो जाती है इसलिए फिर उनमें परिहारविशुद्धि नहीं रहता। यद्यपि जहाँ सामायिक-छेदोपस्थापन समाप्त हो जाता है वहाँ से भी ऊपर सूक्ष्मसाम्पराय और फिर यथाख्यातचारित्र ऐसे उत्तरोत्तर परिणामों की वृद्धि होती जाती है, परन्तु सामायिक-छेदोपस्थापन के बाद की जो विशुद्धिवृद्धि होती है उससे परिहार विशुद्धि के बाद की सामायिकादिरूप विशुद्धिवृद्धि एक जुदे प्रकार की है। वह ऐसी कि, जिन छठे, सातवें गुणस्थानों में सर्वसामान्य साधु को सामायिक-छेदोपस्थापन होते हैं, उन्हीं गुणस्थानों में परिहारविशुद्धि वृद्धि प्राप्त होने पर सामायिक या छेदोपस्थापन न रहकर परिहारविशुद्धिचारित्र हो जाता है। इससे यह मानना पड़ता है कि उन गुणस्थानों के सामायिक-छेदोपस्थापन से यह चारित्र अधिक विशुद्ध है। तभी तो उन दोनों को हटाकर परिहारविशुद्धि-चारित्र प्रकाशमान हो जाता है, परन्तु जब श्रेणीआरोहण करने लगता है तब वही साधु परिहारविशुद्धि से ऊँचा दर्जा ग्रहण करता हुआ सामायिक-छेदोपस्थापन नाम के चारित्र को पाता है। उस समय परिहारविशुद्धि छूट जाता है, अर्थात्, एक बार नीचे दर्जे में परिहारविशुद्धि दोनों चारित्रों को पराभूत करती है और दूसरी बार स्वयं उनसे पराभूत होती है। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि परिहारविशुद्धि-चारित्र एक ऋद्धिविशेष की महिमा का नाम है जो कि गुणस्थान बढ़ाने के कारणभूत चारित्र की कोटि का नहीं हो सकता है और सामायिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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