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छठा अधिकार :: 281
अर्थ-इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से साधु के धर्म का महान् उद्यम होता हैधर्म में साधु दृढ़ होता है। धर्म की रक्षा करने में और उसकी वृद्धि में महान् उद्यम करने लगता है। ऐसा करने से उस तपस्वी के प्रमाद दूर हो जाते हैं और प्रमाद रहित होने से कर्मों का महान् संवर होता है। इस प्रकार अनुप्रेक्षाओं को संवर का कारण कहा। अब चारित्र को दिखाते हैं
चारित्र के भेद
वृत्तं सामायिकं ज्ञेयं छेदोपस्थापनं तथा।
परिहारं च सूक्ष्मं च यथाख्यातं च पञ्चमम् ॥44॥ अर्थ-वृत्त अर्थात् चारित्र। चारित्र के पाँच भेद हैं-1. सामायिक 2. छेदोपस्थापन 3. परिहारविशुद्धि, 4. सूक्ष्मसाम्पराय और 5. यथाख्यात । सामायिक चारित्र का स्वरूप
प्रत्याख्यानमभेदेन सर्वसावध-कर्मणः।
नित्यं नियतकालं वा वृत्तं सामायिकं स्मृतम्॥45॥ ___ अर्थ-सभी पाप-क्रियाओं का अभेदरूप से सदा के लिए अथवा जीवन भर के लिए त्याग करना इसे सामायिक चारित्र हैं। छेदोपस्थापनादि चारित्र भेदरूप से पापक्रियाओं के छोड़ने पर होते हैं और यह चारित्र अभेदरूप से पापक्रिया छूटने पर होता है। छेदोपस्थापन से यही इसमें अन्तर है। छेदोपस्थापन चारित्र का स्वरूप
यत्र हिंसादिभेदेन त्यागः सावद्यकर्मणः।
व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत्॥ 46॥ अर्थ-जहाँ पर हिंसा, चोरी इत्यादि विशेषरूप से भेदपूर्वक पाप-क्रिया का त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जाने पर उसकी शुद्धि करते समय भी किसी विशेष पाप-क्रिया के हटाने में ही लक्ष्य रहता है ऐसा भेद पुरस्सर पाप-क्रिया का त्याग छेदोपस्थापन है। सामायिक चारित्र से जो इसमें भेद बता चुके हैं वह भी उपयुक्त ही है। यह चारित्र दोनों तरह से हुआ करता है। एक वह जो किसी व्रत के भंग हो जाने पर उसकी शुद्धि करते समय प्रायश्चित के रूप में किया जाता है। दूसरा, व्रतधारण करते समय ही भेदरूप से सावधक्रिया के छोड़नेरूप जो परिणाम होता है वह समझना चाहिए। ये दोनों प्रकार कहने मात्र के लिए जुदे दो हैं, स्वरूप दोनों का एक ही है अर्थात् एक तो व्रत भंग हो जाने पर किया जाता है और दूसरा पहले से ही किया जाता है अथवा चाहे जब किया जा सकता है। बस, इतनी अपेक्षा से दोनों में भेद माना गया है परन्तु लक्षण दोनों का इतना ही है कि विशेष रूप से सावध का परिहार किया जाये। इसकी और प्रथम चारित्र की स्थिति छठे गुणस्थान से नौवें गुणस्थान तक रहती है।
इसके बाद दसवाँ गुणस्थान प्राप्त हो जाता है जिसमें कि सूक्ष्मसाम्पराय नाम का चौथा चारित्र प्रकट
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