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________________ छठा अधिकार :: 283 छेदोपस्थापन गुणस्थान बढ़ाने में कारणभूत होते हैं, इसीलिए नौवें गुणस्थान तक सामायिक या छेदोपस्थापन के द्वारा परिणामों की वृद्धि हो जाने पर जो चारित्र होता है उसका नाम सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र का स्वरूप कषायेषु प्रशान्तेषु प्रक्षीणेष्वखिलेषु वा। स्यात् सूक्ष्मसाम्परायाख्यं सूक्ष्मलोभवतो यतेः॥48॥ अर्थ-सम्पूर्ण कषायों को उपशान्त अथवा क्षीण करते-करते जब थोड़ा-सा सूक्ष्म लोभ उदय में शेष रह जाता है उस समय जो परिणामों में अधिक विशुद्धि प्राप्त होती है वह सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। इससे पूर्व में कषायों की अधिकता के वश जीव को विशुद्ध परिणाम करने के लिए प्रयत्न तीव्र करना पड़ता था। क्योंकि, परिणामशुद्धि के.विरोधी कर्मों के वश जीव को विशुद्ध परिणाम करने के लिए प्रयत्न तीव्र करना पड़ता था; यह इसलिए कि परिणामशुद्धि के विरोधी कर्मों का उदय तबतक प्रबल था। अब वह उदय प्रबल न रहने पर भी प्रयत्न तो करना पड़ता है, परन्तु मन्द उद्यम से अब काम चल जाता है, इसलिए नौवें गुणस्थान तक के परिणामों की जाति से उसको जुदा माना है। छठे गुणस्थान से नौवें तक चार गुणस्थान बदलते-बदलते हो गये और इन चार गुणस्थानों के परिणाम परस्पर में भिन्न रहे, परन्तु उनमें चारित्र का भेद न करके दसवें में आने पर किया। इसका कारण वही है जो कि ऊपर कह चुके हैं। इससे भी जो ऊपर चारित्र होता है उसका नाम यथाख्यात है। उसमें प्रयत्न का अभाव ही हो चुकता है। वहाँ प्रयत्न की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। उसकी उत्पत्ति प्रयत्न के अभाव होने पर होती है। प्रयत्न कषाय का कार्य है। वह रहता है तबतक यथाख्यात स्वरूप का होना असम्भव है, इसीलिए प्रयत्न के न रहने पर यह चारित्र होता है। इस तरह सूक्ष्मसाम्पराय की जाति से इस की जाति जुदी है, अर्थात् सामायिक-छेदोपस्थापन प्रयत्नप्रधान हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गौण प्रयत्नवान् है और यह यथाख्यात प्रयत्नशून्य है। इस प्रकार इस चारित्र में पूर्व से विशेषता है, यही बात आगे कहते हैं यथाख्यातचारित्र का स्वरूप क्षयाच्चारित्रमोहस्य कात्स्येनोपशमात्तथा। यथाख्यातमथाख्यातं चारित्रं पञ्चमं जिनैः। 49॥ अर्थ-चारित्रमोहकर्म का पूरा क्षय हो जाने पर जिनभगवान ने पाँचवाँ यथाख्यातचारित्र होना बताया है। अथाख्यात भी इसका दूसरा नाम है। जिनेन्द्रभगवान ने पूरा शुद्ध आत्मस्वरूप जैसा कहा है वैसा स्वरूप ही यहाँ पर प्राप्त होता है। इसलिए इसे यथाख्यात कहते हैं। अथाख्यात का अर्थ यह है कि आज तक जिसकी कथामात्र की थी, परन्तु जो प्राप्त नहीं हुआ था, वह अब प्राप्त हुआ है। मोहकर्म का पूरा उपशम हो जाने पर भी यथाख्यातचारित्र हुआ माना जाता है, क्योंकि, मोहोदय के बिना पूर्ण शुद्ध स्वरूप में मलिनता कौन उत्पन्न कर सकता है? वह उदय जैसा मोहक्षय के समय नष्ट हो जाता है, वैसा ही मोहोपशम के समय में भी नष्ट हो जाता है। इसलिए उपशान्तकषाय वाले जीव में भी यथाख्यात प्रकट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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