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266 :: तत्त्वार्थसार
किन्तु प्रबल निमित्त उससे पहले ही मिल जाए तो कर्म यथासमय से पहले भी निर्जीण हो जाता है, उसका नाम उदीरणा है। किसी कर्म के बँधने पर यदि ऐसी उदीरणा बहुत ही जल्दी हो तो एक समय अधिक एक आवली प्रमाण काल के बाद ही हो सकती है। इसके बाद स्थिति पूर्ण होने से पहले कभी भी वह उदीरणा हो सकती है। परन्तु वह उदीरणा यदि आयु कर्म की हो तो उसका भोगना शुरू हो जानेपर ही होगी। उत्तरभव के लिए बँधे हुए आयु कर्म में उदीरणा कभी नहीं होती। इसी प्रकार और भी कोईकोई कर्म कभी-कभी इस तरह से बँधते हैं कि उनमें भी उदीरणा नहीं होती। उनकी स्थिति जितनी बँधते समय ठहरती है उतनी पूरी होने पर ही वे पूरे निर्जीर्ण हो सकते हैं। इसके सिवाय परिणामों की उत्कट सरागता अथवा वीतरागता आदि निमित्त मिलने पर भी स्थिति में हीनाधिकता हो जाया करती है। जो स्थिति घटती है उसे अपकर्षण कहते हैं और जो बँधने के समय की ठहरी हुई स्थिति में बढ़ जाती है उसे उत्कर्षण कहते हैं। यह ध्यान रखने की बात है कि चाहे जैसा उत्कर्षण हो, परन्तु किसी भी कर्म की सर्वोत्कृष्ट स्थिति से अधिक स्थिति नहीं रह सकती है, यह स्थिति का स्वरूप हुआ।
अनुभागबन्ध का स्वरूप
विपाकः प्रागुपात्तानां य: शुभाशुभकर्मणाम्॥46॥
असावनुभवो ज्ञेयो यथानाम भवेच्च सः। अर्थ-पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मों का जिस रूप में फल प्राप्त होता है उसका उस रूपवाली विशेष शक्ति को अनुभव अथवा अनुभाग कहते हैं। कर्मों के जैसे नाम होते हैं वैसे और उन्हीं नामवाले अनुभाग होते हैं। प्रकृतियों के और अनुभागों के नामों में अन्तर नहीं होता। प्रकृति, सामान्य स्वभाव को कहते हैं और उन्हीं स्वभावों की तरतमरूप विशेषताओं को अनुभाग कहते हैं। प्रकृति और अनुभागों में यदि अन्तर है तो इतना ही है। __प्रकृतियों के नामानुसार अनुभाग जो कहा वह मूल प्रकृतियों में तो सर्वत्र नामानुसार ही होता है, परन्तु उत्तरभेदों में दूसरे समानजातीय कर्मों के अनुसार भी अनुभाग हुआ करता है। जैसे, अप्रत्याख्यानावरण, अनन्तानुबन्धी प्रत्याख्यानावरण, संज्वलनरूप होकर फल दे सकता है। आयुकर्मों के परस्पर परिवर्तन नहीं हो सकते हैं। देवायु का मनुष्यादि आयुरूप होकर परिवर्तन नहीं होता। दर्शन व चारित्रमोह में भी परस्पर परिवर्तन नहीं होता है। जैसे, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी आदि रूप से और अनन्तानुबन्धी आदि मिथ्यात्वरूप से फल नहीं दे सकते हैं। इस प्रकार आय का व दर्शनमोह चारित्रमोह का परस्पर में अनुभाग बदलता नहीं है, बाकी उत्तर प्रकृतियों में निमित्त मिलने पर सजातीयरूप बदल भी जाता है।
इन कर्मों में से चार घाति और चार अघाति कहते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, ये चार घाति हैं। क्योंकि, सत्ता रखनेवाले ज्ञानादि गुणों का इनसे घात होता है। शेष चारों भी सूक्ष्मत्वअव्याबाध-अगुरुलघु-अवगाहन गुणों को घातते हैं, परन्तु ये गुण सत्तात्मक नहीं हैं, इसलिए उनके घातक होने पर भी ये चारों अघाति कहलाते हैं। नामकर्म सूक्ष्मत्व गुण का घातक है। वेदनीय अव्याबाध का घातक है। गोत्रकर्म से अगुरुलघु गुण घाता जाता है और आयुकर्म द्वारा अवगाहन का घात होता है। 1. आवलियं आवाहा उदीरणासिज्ज सत्तकम्माणं। परभवियआढगस्स य उदीरणा णत्थि णियमेण ॥-गो.क.
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