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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 267 कर्मों के विपाक एक दूसरी दृष्टि से देखें तो चार प्रकार के हो जाते हैं: 1. पुद्गलविपाक, 2. क्षेत्रविपाक, 3. भवविपाक और 4 जीवविपाक । शरीरादि कर्मों का पुद्गल पर ही परिणाम होता है, इसलिए वे पुद्गलविपाकी हैं। ऐसे पुद्गलविपाकी कर्म 36 हैं। शरीर पाँच, अंगोपांग तीन, निर्माण एक, स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक शरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ ये सब एक-एक, संस्थान छह, संहनन छह ये पुद्गलविपाकियों के नाम हैं। चारों अनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी हैं, क्योंकि विग्रहगति के क्षेत्र में ही उनका फल प्राप्त होता है। चारों आयु भवविपाकी हैं, क्योंकि नरकादि भव उत्पन्न करने के लिए आयु ही है। बाकी अठहत्तर कर्म जीवविपाकी हैं। उनका परिणाम जीव के ऊपर ही सीधा होता है। उन अठहत्तर में से सैंतालीस घाति कर्म, दो वेदनीय, दो गोत्र और बाकी सत्ताईस नामकर्म । उन नामकर्मों के नाम-चार गति, पाँच जाति, उच्छास एक, विहायोगति दो, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, तीर्थकरत्व ये सब एक-एक । प्रदेशबन्ध का स्वरूप घनांगुलस्यासंख्येयभागक्षेत्रावगाहिनः ॥ 47 ॥ एकद्वित्र्याद्य-संख्येय-समय-स्थितिकांस्तथा । उष्ण- रूक्ष-हिम-स्निग्धान् सर्व-वर्ण- रसान्वितान् ॥ 48 ॥ सर्वकर्म-प्रकृत्यर्हान् सर्वेष्वपि भवेषु यत् । द्विविधान् पुद्गलस्कन्धान् सूक्ष्मान् योगविशेषतः ॥ 49 ॥ सर्वेष्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशकान् । आत्मसात् कुरुते जीवः स प्रदेशोऽभिधीयते ॥ 50 ॥ अर्थ - जीव अनन्तानन्त पुद्गलस्कन्धों को सर्व भागों में और प्रत्येक समय में अपने साथ तन्मय करता हुआ बाँधता है। इसी का नाम प्रदेशबन्ध है । वे पुद्गल सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में बद्ध होते हैं। एक भी आत्मप्रदेश उनसे बचता नहीं । वे पुद्गल अनेक प्रकार के होते हैं । परमाणुओं की संख्या सब में एकसी नहीं होती । प्रकृतिस्वभाव भी उनके परस्पर में अनेक प्रकार के होते हैं। स्पर्शादि के अविभागप्रतिच्छेद भी सबके समान नहीं होते । इत्यादि अनेक ऐसे विशेष धर्म रहते हैं जिनसे कि वे विविध प्रकार के मानने पड़ते हैं । बन्धयोग्य पुद्गल स्थूल नहीं होते, किन्तु सूक्ष्म होने चाहिए। सर्व कर्म प्रकृतिरूप परिणमने की योग्यता भी उनमें होनी चाहिए। चाहे जिस वर्ण के और चाहे जिस रस के धारक वे पुद्गल हो सकते हैं। आठ स्पर्शों में से स्निग्ध- रूक्ष-शीत-उष्ण इन चार स्पर्शों का उन स्कन्धों में प्रादुर्भाव रहता है। मृदुकर्कश - गुरु-लघु ये चार स्पर्श स्थूल पर्यायों में ही उत्पन्न होते हैं । इसलिए वे चार भेद यहाँ पर नहीं माने गये हैं। एक, दो, तीन, आदि संख्येय, असंख्येय समयों की स्थिति वाले वे स्कन्ध ही हैं। उनकी सूक्ष्मता का अन्दाज होने के लिए उनकी अवगाहना घनांगुल के असंख्यात एकभागमात्र क्षेत्र प्रमाण मानी गयी है। इस प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गलस्कन्ध प्रति समय प्रत्येक जीव के साथ बँधा करते हैं । इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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