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पाँचवाँ अधिकार :: 265 अर्थ-वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्तमात्र है। नाम और गोत्र की आठ मुहूर्तप्रमाण जघन्य स्थिति है। बाकी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह, आयु और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक समय अधिक एक आवली प्रमाण काल से लेकर अन्तर्मुहूर्त शुरू होता है, और दो घड़ी में एक समय कम रहने तक अन्तर्मुहूर्त माना जाता है। मुहूर्त के भीतर के समय का नाम अन्तर्मुहूर्त है।
जघन्य स्थिति से एक समय अधिक यदि किसी कर्म की स्थिति हो तो वह मध्यम स्थिति जहाँ तक उत्कृष्ट स्थिति से एक समय कम मर्यादा रहे वहाँ तक मानी जाती है। स्थिति के मध्यम भेद एकएक समय के बढ़ने से असंख्यातों होंगे यह बात कह चुके हैं। उत्कृष्ट स्थिति के समयों में से एकसंख्या तो उत्कृष्ट की घटा देनी चाहिए और एक समय अधिक आवली प्रमाण जघन्य स्थिति के असंख्यात समयों की वह असंख्यात घटा देनी चाहिए, फिर जो उत्कृष्ट स्थिति के समयों की मध्यम अंसख्यात संख्या रही उतने भेद मध्यम स्थिति के प्रत्येक कर्म में होते हैं। जघन्य का और उत्कृष्ट का भेद एकएक हो सकता है। इस प्रकार कर्मों की तीन, दो प्रकार की स्थिति मानी गयी है। ___ जो कर्म जितने काल की स्थिति बँधते समय धारण करता है उतनी स्थिति पूर्ण होने पर उस कर्म का आत्मा से बन्धन छूट जाता है, फिर चाहे वह पुद्गल कर्म आत्मा के साथ ही रहे अथवा वहाँ से हट जाए। जो फिर आत्मा के पास ही बना रहता है उसे विस्त्रसोपचय कहते हैं। ऐसे विस्रसोपचय का प्रमाण बँधे हुए कर्मों के प्रमाण से बहुत कुछ अधिक सदा इकट्ठा बना रहता है। प्रायः उसी में से कुछ स्कन्ध रागद्वेषादि निमित्त के वश आत्मा के साथ बँधते रहते हैं और स्थिति पूरी होने पर छूटते रहते हैं।
प्रत्येक समय में असंख्यातों स्कन्ध कर्मरूप होते हैं, उनकी स्थिति जितनी होती हैं उतनी सभी पूर्ण होने पर वे एक दम निर्जीर्ण नहीं होते, किन्तु निर्जरा का क्रम एक दूसरा ही है।
कल्पना कीजिए एक सागर एक कर्म की स्थिति हुई। उसकी निर्जरा तो एक सागर के अन्त तक हो ही जाएगी, परन्तु शुरुआत कुछ देर से ही होती है। उसका अन्दाज ऐसा है कि एक सागर की स्थितिवाला कर्म सौ वर्ष के बाद से निर्जीर्ण होने लगता है और एक सागर के अन्त तक पूरा निर्जीर्ण हो जाता है। सौ वर्ष तक उसमें से कुछ भी अंश निर्जीर्ण नहीं होते, इसलिए एक सागर की स्थितिवाला कर्म यदि बराबर फल दे तो सौ वर्ष घटकर सागरपर्यन्त निरन्तर फल देगा। यहाँ पर सौ वर्ष का काल जो फल देने से शून्य रहा उसे आबाधाकाल कहते हैं। इसी प्रकार एक सागर के प्रति सौ वर्ष के हिसाब से प्रत्येक कर्म की स्थिति में से जो आबाधाकाल हो सकता है उतनी आबाधा सर्वत्र माननी चाहिए। अल्पस्थितिवाले कर्मों की यदि छोटी से छोटी आबाधा हो तो एक समय अधिक एक आवलीप्रमाणकाल होगा। आबाधा का यह सर्व सामान्य नियम सात कर्मों के विषय में है। आयु:कर्म की आबाधा सर्वत्र उतनी होती है जितनी कि आयुकर्म बाँधते समय से उस वर्तमान (भुज्यमान) पर्याय में ठहरना हो। जो जघन्यादि आयु का स्थितिमान बताया गया है उसकी गिनती उत्तर पर्याय के प्रति सन्मुख होने के समय से ही मानी जाती है। जैसे, एक मनुष्य ने तेतीस सागर की स्थितिवाला देवायु कर्म बाँधकर मरण किया और देव हो गया। तो मरण के बाद से ही तेतीस सागर की स्थिति का उपयोग होगा। मरने से चाहे जितने पहले उसने उस कर्म को बाँधा हो पर तेतीस सागर में उसकी गिनती नहीं होगी। इस प्रकार स्थिति का स्वरूप है, परन्तु यह सब कब? जबकि यथाकाल कर्मों की निर्जरा हो तब, यदि यथाकाल न आने पावे,
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