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________________ 264 :: तत्त्वार्थसार अबन्धयोग्य 28 कर्मों के नाम अबन्धाः मिश्र - सम्यक्त्वे बन्ध-संघातयोर्दश ॥ 42 ॥ स्पर्शे सप्त तथैका च गन्धेऽष्टौ रस- वर्णयोः । अर्थ-सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये दो महोनीय कर्म ऐसे हैं जो बन्धन के समय जुदे बद्ध नहीं होते, परन्तु बँधने पर सत्ता में जुदे माने जाते हैं और उदय भी अलग-अलग समयों में अलग-अलग स्वरूपमय होता है । नाम कर्म के छब्बीस भेद अबन्ध हैं उनमें से पाँच शरीर बन्धन और पाँच शरीरसंघात ये दश तो शरीर के घटक होने से पाँचों शरीर - कर्मों में गर्भित हो जाते हैं । इनका जुदा बन्ध नहीं होता और बीस भेद जो स्पर्शादिकों के हैं उनमें से स्पर्श का, रस का, गन्ध का, वर्ण का, एक-एक ही बन्ध होता है, इसलिए उत्तर भेद बीस में से चार का बन्ध होने से सोलह की संख्या इनमें से घट जाती है। विशेष – स्पर्श के कुल आठ भेद बताये गये हैं । उनमें से एक बन्धन योग्य होने पर बाकी सात अबन्ध रह जाते हैं। गन्ध के कुल दो भेद हैं । उनमें से बन्धन के समय सामान्य एक ही संख्या रहती है, इसलिए एक संख्या कम हो जाती है। रस और वर्ण के पाँच-पाँच भेद कहे गये हैं । उनमें से प्रत्येक का एकरूप में बन्ध होने से चार-चार संख्या छूट जाने से आठ की संख्या कम हो जाती है। इस प्रकार मिलाने से अबन्ध की सभी प्रकृति 28 हो जाती हैं। सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति वेद्यान्तराययोर्ज्ञान- दूगावरणयोस्तथा ॥ 43 ॥ कोटी कोट्यः स्मृतास्त्रिशत् सागराणां परा स्थितिः । मोहस्य सप्ततिस्ताः स्युर्विंशति - र्नाम - गोत्रयोः ॥ 44 ॥ आयुषस्तु त्रयस्त्रिंशत् सागराणां परा स्थितिः । अर्थ-वेदनीय, अन्तराय की एवं ज्ञानावरण, दर्शनावरण की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है। मोह की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण होती है । नाम कर्म की और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है। आयुः कर्म की तैतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। यह उत्कृष्ट स्थिति मूल कर्मों की है। आठों मूल कर्मों के उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस होते हैं। उनमें से प्रत्येक मूल कर्म के किसी एकाध भेद में ही उत्कृष्ट स्थिति की सम्भावना बनती है, सभी भेदों में उत्कृष्ट स्थिति सम्भव नहीं होती । जैसे, मोह के उत्तर भेदों में से एक मिथ्यात्व में ही सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति हो सकती है । चारित्रमोह में अधिक से अधिक चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही हो सकती है। इसी प्रकार उत्तर भेदों में जघन्य से उत्कृष्ट भेद की स्थितिपर्यंत स्थितियों में एकेक समय की हीनाधिकता से असंख्यातों भेद हो जाते हैं । Jain Educationa International सब कर्मों की जघन्य स्थिति मुहूर्ता द्वादश ज्ञेया वेद्येऽष्टौ नाम - गोत्रयोः ॥ 45॥ स्थितिरन्तर्मुहूर्तस्तु जघन्या शेषकर्मसु । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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