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________________ 258 :: तत्त्वार्थसार होता है। दसवें गुणस्थान के ऊपर कषाय नष्ट हो जाता है, इसलिए नवीन बँधनेवाले सातावेदनीय में स्थिति व अनुभाग हो तो कैसे हो ? उत्तर - नवीन विशेषता उत्पन्न हो तो कारण की आवश्यकता होती है। जिस समय सातावेदनीय बन्धरूप होता है उसी समय उदयरूप होकर उसकी निर्जरा हो जाती है, इसलिए तो स्थिति रखनेवाले कारण की आवश्यकता नहीं पड़ती और अनुभाग के लिए यों आवश्यकता नहीं पड़ती कि जो प्रकृतिप्रदेश आते समय उस पिंड में स्वभाव होता है वही बन्ध के समय बना रहता है । साता रूप जो स्वभाव है वह साथ में ही आता है । इतररूप परिणाम जिनमें हो सके ऐसे प्रदेश आते ही नहीं हैं तो फिर कारण की आवश्यकता क्यों पड़े ? मोहनीय के उत्तर अट्ठाईस भेद त्रयः सम्यक्त्व- मिथ्यात्व - सम्यग्मिथ्यात्वभेदतः ॥ 27 ॥ क्रोधो मानस्तथा माया - लोभो' ऽनन्तानुबन्धिनः । तथा त एव चाप्रत्याख्यानावरण-संज्ञिकाः ॥ 28 ॥ प्रत्याख्यान- रुधश्चैव तथा संज्वलनाभिधाः । हास्य रत्यरती शोको भयं सह जुगुप्सया ॥ 29 ॥ नारी-पुं- षण्ढ-वेदाश्च, मोहप्रकृतयः स्मृताः । अर्थ - मोहकर्म के उत्तर भेद दो बताये गये हैं । पहले का नाम दर्शनमोह और दूसरे का चारित्रमोह | दर्शनमोह का अर्थ है जो सम्यग्दर्शन को मोहित करे, अर्थात् सम्यग्दर्शन की विपरीत अवस्था कर दे। चारित्रमोह चारित्र गुण की विपरीत अवस्था कर देता है। दर्शन मोह के तीन भेद हैं- सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय । इसके उदय रहते जो सम्यग्दर्शनगुण को बाधा पहुँचाते हुए भी नष्ट न कर सके उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहा है। इसके उदय रहते जो सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । मिथ्यात्वमोहनीय के उदय में सम्यग्दर्शन की अवस्था पूरी - पूरी विपरीत हो जाती है। उस अवस्था को मिथ्यात्व अथवा मिथ्यादर्शन कहते हैं । सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय के उदय का फल यह है कि जीव का सम्यदर्शन गुण कायम तो नहीं रह पाता है, परन्तु मिथ्यात्व - सा पूरा मलिन भी नहीं हो जाता है । वह अवस्था मिथ्यात्व की-सी होती है । यह अवस्था मिथ्यात्व से भी जुदी जाति की होती है और सम्यदर्शन से भी निराली होती है। तीसरे गुणस्थान का स्वरूप गुणस्थानों के वर्णन के समय कह चुके हैं। वह इसी अवस्था का नाम है। ये तीनों दर्शनमोह के भेद हुए । चारित्रमोह के सामान्य उत्तर भेद तो दो हैं और विशेष उत्तर भेद पच्चीस हैं। कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय ये दो भेदों के नाम हैं । कषाय वेदनीय के क्रोधादि सोलह भेद हैं और नोकषाय वेदनीय केनौ । इस प्रकार मिलने से विशेष उत्तर भेद पच्चीस होते हैं। कषाय वेदनीय के सोलह भेद इस प्रकार हैं- कषायों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य ये चार दर्जे होते हैं । उत्कृष्ट कषाय को अनन्तानुबन्धी कहते हैं और अनुष्कृष्ट को अप्रत्याख्यानावरण तथा अजघन्य को प्रत्याख्यानावरण और जघन्य को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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