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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 257 शेषेन्द्रियों के आवरण को एक संख्या में रखने का एक दूसरा भी हेतु होना चाहिए। वह यह है कि, चक्षुसम्बन्धी दर्शन का काम अधिक पड़ता है और शेष इन्द्रियों के दर्शन का कम, इसलिए चक्षुदर्शन को आवृत करनेवाला कर्म भी अधिक लगता है। उतना अचक्षुदर्शन का आवरण करनेवाला कर्म नहीं लगता है। अतः एक मूल प्रकृति बन्ध के अनुसार दर्शनावरण में प्रदेशों का बँटवारा हो जाने पर उत्तर भेदों में चक्षु वा अचक्षु का समान विभाग होता है। उसमें से चक्षुदर्शनावरण का तो फिर अधिक विभाग नहीं माना गया है, परन्तु अचक्षुदर्शनावरण में से स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों के पाँच विभाग मानने पड़ते हैं। जो दर्शनावरण स्पर्शनेन्द्रियजन्य दर्शन को रोक सकता है तो उत्तर भेद करने की आवश्यकता ही न रहती, परन्तु उत्तर भेदों का मानना तथा कार्यकारण न्याय इस बात को मानता है कि प्रत्येक अचक्षुदर्शनावरण के कार्य भी जुदे ही होने चाहिए और वे अचक्षुदर्शनावरण भी जुदे-जुदे ही हैं। यद्यपि चक्षुदर्शनावरण में भी विषयों के भेद से उत्तरभेद होंगे, परन्तु वैसे भेद तो स्पर्शनेन्द्रिय अचक्षुदर्शनावरणादिकों में भी हो ही सकते हैं, इसलिए यह मानना पड़ता है। दर्शनावरण के साधारण उत्तरभेदों में चक्षु इन्द्रिय के लिए एक विभाग और शेष इन्द्रियों के लिए उतना ही एक विभाग होता है। अतएव शेष इन्द्रियों के आवरण कर्म का चक्षु-आवरण की अपेक्षा भाग कम है। यद्यपि मन का कार्य अधिक रहता है, परन्तु वह केवल सैनी पंचेन्द्रियों में काम आता है और चक्षुइन्द्रिय का उपयोग चौइन्द्रिय से लेकर सैनीपर्यन्त काम में आता है, इसलिए उसका रोधक कर्म ही अधिक रहना चाहिए। जहाँ जो इन्द्रिय नहीं है वहाँ तो कर्मों का उदय एक-सा ही काम देगा, वह चाहे अल्प हो चाहे अधिक, परन्तु इन्द्रिय न होने से एकसा काम होगा, किन्तु जहाँ क्षयोपशमजन्य ज्ञान का प्रकाश और उपयोग अधिक है कर्म का भी उपयोग वहीं पर अधिक होगा। वेदनीय के उत्तर दो भेद द्विधा वेद्यमसद्वेद्यं, सद्वेद्यं च प्रकीर्तितम्। अर्थ-वेदनीय कर्म के दो भेद कहे हैं, एक असातावेदनीय, दूसरा सातावेदनीय। सातावेदनीय का फल सुख का अनुभव है और असातावेदनीय का फल दुःखानुभव करना है। संसारी जीवों में इसका बन्ध भी निरन्तर ही होता है। इसके बन्ध के कारण आस्रव-प्रकरण में कह चुके हैं। सब कर्मों का साथ में इसका जबतक बन्ध होता है तबतक के बन्ध की अपेक्षा लेकर वे कारण बताये गये हैं। वे कारण संसारी जीवों में सदा बदलते रहते है, इसलिए बन्ध भी कभी साता का और कभी असाता का होता रहता है। कषायों का नाश हो जाने पर जब केवल योगप्रवृत्ति रह जाती है उस समय केवल साता वेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है। योगप्रवृत्ति प्रकृति व प्रदेशबन्ध के लिए कारण मानी गयी है। आठों कर्मों की प्रकृतियों का और प्रदेशों का जो बन्ध होता है उसका कारण भी योग ही है, परन्तु केवल योग के द्वारा आठों कर्मों का प्रकृति-प्रदेशबन्ध नहीं होता। केवलयोग के समय केवलसातावेदनीय का बन्ध होता है, इसलिए यों कहना चाहिए कि आठों कर्मों के प्रकृति-प्रदेश का कारण जो योग होता है वह कषाय सहित होने पर होता है। इसके सिवाय यहाँ यह शंका भी हो सकती है कि स्थिति व अनुभाग की उत्पत्ति का कारण कषाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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