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________________ 256 :: तत्त्वार्थसार लगाने पर जो साक्षात् जानने की शक्ति थी उसे मनःपर्ययज्ञानावरण व अवधिज्ञानावरण ये दो कर्म रोक देते हैं, इसीलिए संसारी जीवों में मतिश्रुतज्ञान रहते हुए भी साक्षात् ज्ञान उत्पन्न नहीं हो पाता है। यह ऊपर के तीन आवरणों का स्वरूप हुआ। अब मतिश्रुतावरणों को विचारिए। उपस्थित विषय का प्रथम ज्ञान सो मतिज्ञान है और मतिज्ञान से जाने हुए विषय के सम्बन्ध से अर्थान्तर का निश्चय करना सो श्रुतज्ञान का ही काम है और मतिज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्म विषयों का ज्ञान है, इसीलिए उतरते हुए ज्ञानों के भेदों में से मतिज्ञान से इसका भेद ऊपर ऊपर है। यद्यपि इनके घातक दोनों कर्मों का क्षयोपशम सर्वत्र माना गया है, परन्तु श्रुतज्ञान का उत्कुष्ट सामर्थ्य मतिज्ञान के सामर्थ्य से बहुत ऊँचा है। मतिज्ञान चाहे जब होता है, परन्तु श्रुतज्ञान अधिक उपयोग लगाने पर ही होता है। इसीलिए मति व श्रुत ये ज्ञान के दो विशाल विभाग माने गये और आवरण भेदों में विभक्त माने गये हैं। दर्शनावरण के उत्तर नौ भेद चतुर्णां चक्षुरादीनां, दर्शनानां निरोधतः। दर्शनावरणाभिख्यं प्रकृतीनां चतुष्टयम्॥25॥ निद्रानिद्रा तथा निद्रा, प्रचलाप्रचला तथा। प्रचला स्त्यानगृद्धिश्च, दृग्रोधस्य नव स्मृताः॥26॥ अर्थ-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन ये चार दर्शन हैं। इन दर्शनों के घातक या रोकनेवाले कर्मों के भी इसीलिए चार भेद होते हैं। निद्रा पाँच प्रकार की मानी जाती है। वह भी दर्शनावरणरूप मानी जाती है, इसलिए दर्शनावरण के भेद नौ हैं। 1. चक्षुदर्शनावरण, 2. अचक्षुदर्शनावरण, 3. अवधिदर्शनावरण, 4. केवलदर्शनावरण, 5. निद्रानिद्रा, 6. निद्रा, 7. प्रचलाप्रचला, 8. प्रचला, १ स्त्यानगृद्धि ये उनके नाम हैं। चक्षदर्शनादि के आगे जैसे आवरण लगाने पर दर्शनावरण के भेद नाम होते हैं वैसे निद्राओं के आगे आवरण-शब्द लगाने की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि, निद्रा स्वयं आवरण अर्थ को सूचित करती है, इसीलिए यदि निद्राओं के आगे आवरण शब्द लगा भी दिया जाए तो ऐसा अर्थ होगा कि ये निद्रारूप आवरण हैं। चक्षुदर्शनावरणादिकों का अर्थ ऐसा होता है कि ये चक्षुदर्शनादिकों के आवरण हैं, इसीलिए चक्षुदर्शनादिकों के आगे आवरण शब्द जोड़े बिना काम नहीं चल सकता है। ___ अब इनमें से प्रत्येक का स्वरूप बताते हैं : चक्षु इन्द्रिय द्वारा होनेवाले ज्ञान के पहले जो चक्षु की, विषय के प्रति उन्मुखता होती है वह चक्षुदर्शन है। उसे जो आवरण कर्म रोकता है वह चक्षुदर्शनावरण है। चाक्षुषदर्शनावरण भी इसे कह सकते हैं। चक्षु के सिवाय जो चार बाह्य इन्द्रियों और एक मन इस सब के द्वारा जो ज्ञान होता है वह प्रथम ही दर्शन हो जाने पर होता है। उसी दर्शन को अचक्षुदर्शन कहते हैं। उस दर्शन को घातने वाला जो कर्म है वह अचक्षुदर्शनावरण है। यदि स्पर्शनदर्शनावरण आदि इनके उत्तर भेद किए जाएँ तो हो सकते हैं, परन्तु अभेद विवक्षा रखकर आचार्यों ने उन सबों को एक भेद में ही गर्भित किया है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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