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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 255 हैं; इसलिए मति-श्रुतावरण को परोक्षावरण और अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञानावरण को प्रत्यक्षावरण कह सकते हैं। ___परोक्ष मति-श्रुतज्ञान हैं। इनके उत्तरभेद न्यायग्रन्थों में अनुभव, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान व आगम ऐसे भी किए हैं। इनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। इन सबों के आवरण भी जुदेजुदे होने ही चाहिए, परन्तु मति-श्रुतावरण के मान लेने से इन सभी का अन्तर्भाव हो जाता है। अनुभवावरण, स्मरणावरण आदि आवरण परस्पर में भिन्न अवश्य हैं, परन्तु मत्यावरण व्यापक होने से उसके अन्तर्गत आ जाते हैं। यही बात सभी आवरणों में समझनी चाहिए। प्रत्येक ज्ञान के उत्तरभेद अपरिमित होते हैं, इसलिए आवरणों के भी उत्तरभेद उतने तक हो सकते हैं। सभी सत्-पदार्थों को और उनके गुणों पर्यायों को पूर्ण जान लेने की शक्ति का नाम केवलज्ञान है। अथवा यों कहिए कि जान लेने की शक्ति में यदि कोई आवरण न हुआ तो जो सत् पदार्थ है उसे वह शक्ति अवश्य जानेगी, क्योंकि जान लेना ही उस शक्ति का स्वभाव है। उस अखंड असहाय शक्ति केवलज्ञान को मलिन करनेवाले कर्म आ लगने से वह शक्ति दब जाती है। इसी का नाम केवलज्ञानावरण यह केवलज्ञानावरण जीव में प्रयत्न बिना ही प्रकट रहनेवाले पूर्ण ज्ञान को घातता है; जैसे कि प्रत्याख्यानावरण सकल संयम को घातता है, परन्तु कोई प्रयत्न करके उपयोग किसी तरह लगावे तो फिर भी उपयोगमात्र प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है जिसे कि मनःपर्यय व अवधि कहते हैं। जैसे कि प्रत्याख्यानावरण का उदय रहते हुए भी देशविरत होते हैं। जो उपयोग लगाने पर भी सीधा असहाय प्रत्यक्ष ज्ञान न होने दे उसे मनःपर्ययज्ञानावरण व अवधिज्ञानावरण कहते हैं। मन के चिन्तवन का वास्तविक स्वरूप अमूर्तिक होने पर भी उपचार मात्र से मूर्तिक माना जाता है। यही विषय मन:पर्यय ज्ञान का होता है। अवधिज्ञान का विषय मूर्तिक पदार्थ होता है, इसलिए अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान अधिक सूक्ष्म विषय वाला है। अधिक महिमा होने के कारण ही केवलज्ञान से दूसरा दर्जा इसका माना गया है। इसका आवरण भी ऐसे ही स्वभाव को घातता है। इस प्रकार मनःपर्यय एवं अवधि के स्वभाव में बहुत बड़ा अन्तर है, इसीलिए परमनोगत चिन्तवन को जान लेने की महत्त्वपूर्ण शक्ति का घातक एक कर्म, और उपस्थित पदार्थों को सीधा साक्षात् जानने की जानने की शक्ति का घातक दूसरा कर्म, ये दो कर्म हुए। इन्हीं को मनःपर्ययज्ञानावरण व अवधिज्ञानावरण कहते हैं। अपने-अपने आवरणों का नाश होने पर भी ये ज्ञान चाहे जिस पदार्थ को नहीं जान सकते हैं, किन्तु जहाँ तक उपयोग लगाया जा सकता है, वहाँ तक जान सकते हैं। मनःपर्यय का उपयोग अढाई द्वीप पर्यन्त के मनुष्यों में लग सकता है। अवधिज्ञान का विषय किसी का मन नहीं हैं, किन्तु सीधा पदार्थ विषय होता है, इसलिए उसकी सीमा कुछ द्वीप, समुद्र व कुछ आगे, पीछे काल में मर्यादित है। जो उपयोगमय ज्ञान होते हैं वे अपने प्रसार की सीमा कुछ न कुछ अवश्य रखते हैं। केवलज्ञान के सिवाय सभी ज्ञान उपयोगमय हैं, इसलिए निरवधि व युगपत् सब कुछ जानने की योग्यता केवलज्ञान में ही है। केवलज्ञानावरण इसी बात को रोकता है अर्थात् उपयोग लगाने पर जानने की शक्ति केवलज्ञानावरण से रुकती नहीं है, केवल निरवधिपने का वह घातक है और विषय में अवधि के हो जाने पर भी उपयोग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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