SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 254 :: तत्त्वार्थसार अब यह बात और देखने की है कि मोह व ज्ञानावरण के बीच में क्या अन्तर है ? ज्ञान आत्मा का गुण है । मोहकर्म जबकि आत्मा को घातता है तो फिर उसके असली लक्षण को मलिन करने में क्यों न प्रेरक होगा ? इसलिए ज्ञानावरण भी चाहे अपना कार्य एक जुदा ही करता है, परन्तु मोह के आश्रित होकर ही करता है। जब तक मोह का बन्ध होता रहता है तभी तक ज्ञानावरण का भी बन्ध होता है। दसवें के अन्त में मोहकर्म के बन्ध का व्युच्छेद होता है और ज्ञानावरण का बन्ध भी तभी तक होता है। अब हम वास्तव में बन्ध का विचार करें तो एक मोहकर्म तो प्रधान ठहरता है और दूसरे सर्व अप्रधान ही ठहरते हैं, इसलिए संसार के कर्मकृत मोह द्वारा बढ़ाने वाला माना जाता है और मोह के नाश से विद्यमान सर्व कर्मों का भी कुछ आगे तक नाश हो ही जाता है । अब अभेद नय से देखें तो बन्ध एक है और बन्ध के अभावरूप मुक्ति भी एक ही है, इसीलिए भेदविवक्षा से चाहे मोक्ष का स्वरूप ज्ञानदर्शन-चारित्र इन तीन गुणरूप होगा, परन्तु अभेद विवक्षा से रत्नत्रय का स्वरूप एक शुद्ध आत्मा ही है । उसका बन्ध होना एक प्रकार की अशुद्धता है । भेदविवक्षा से बन्ध के प्रधान भेद आठ हैं। जीव के गुण तो अनन्त होते हैं, परन्तु कर्म उन सभी गुणों को घातते नहीं हैं। जीव की शुद्ध अवस्था जैसी कुछ युक्ति व आगम से ठहराई गयी है। उससे संसार में आठ प्रकार का विकार दिख पड़ता है, इसलिए मूल कर्मप्रकृतियाँ न आठ से अधिक माननी चाहिए और न कम । कर्मों के उत्तर भेद अन्याः पञ्च नव द्वे च तथाष्टाविंशतिः क्रमात् । चतस्त्राश्च त्रिसंयुक्ता नवतिर्द्वे च पञ्च च ॥ 23 ॥ अर्थ- आठों मूल प्रकृतियों के उत्तर भेद इस प्रकार हैं— ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरण के नौ, वेदनीय के दो, मोहनीय के अट्ठाईस, आयु के चार, नाम के तिरानवै, गोत्र के दो और अन्तराय के पाँच भेद हैं। ज्ञानावरण के पाँच भेद मतिः श्रुतावधी चैव, मन:पर्यय - केवले । एषामावृतयो ज्ञानरोधप्रकृतयः स्मृताः ॥ 24 ॥ अर्थ - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान के प्रकार हैं । उनका आवरण करनेवाली प्रकृतियाँ भी पाँच हैं। प्रत्येक ज्ञान के नाम के आगे आवरण - शब्द जोड़ देने से ज्ञानावरणों के नाम हो जाते हैं । अर्थ के अनुसार ये सभी नाम हैं। आवरण को रोध भी कह सकते हैं, आवृति भी कह सकते हैं । प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे भी ज्ञान के साधारण दो भेद किये जाते हैं, परन्तु ये भेद ज्ञानावरण की तीव्रता व मन्दता के हिसाब से किए जाते हैं। ज्ञानों में यह कोई जातिभेद नहीं है अथवा ये भेद ज्ञान की जाति भिन्न-भिन्न मानने से माने जाएँ तो कुछ हानि नहीं है। प्रत्यक्ष व परोक्ष के ही मतिज्ञानादिक उत्तरभेद Jain Educationa International 1. "ज्ञानानन्दौ चितो धर्मौ नित्यौ द्रव्योपजीविनौ ।" "कर्म्मकयमोहबढिय" ऐसा गोम्मटसार का वचन है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy