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________________ पाँचवाँ अधिकार : 259 संज्वलन । अनन्त प्रमाण संसार की अमर्यादित अवस्था अति तीव्र कषाय के रहने से हो सकती है, इसलिए उत्कृष्ट कषाय को अनन्त का अर्थात् अमर्यादित संसार बन्धन करने वाला समझकर अनन्ताबुन्धी नाम रखा गया है। यह कषाय सम्यग्दर्शन से तथा सम्यग्मिथ्यात्व से पहले तक उदय में आता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवों में मिथ्यादर्शन का और इस अनन्ताबुन्धी कषाय का उदय निरन्तर बना रहता है। इन दोनों ही कर्मों का उदय जब हटता है तभी प्रथम सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। दूसरे कषाय को अप्रत्याख्यानावरणीय इसलिए कहते हैं कि वह एक अशंरूप भी प्रत्याख्यान अर्थात् विषयत्याग नहीं होने देता । तीसरा कषाय अधूरा सा विषय त्याग होने में आड़े नहीं आता, परन्तु पूरा त्याग होने में अवश्य आत्मा के परिणामों को रोकता है, इसलिए इसे प्रत्याख्यानावरणीय कहते हैं । विषय से आत्मपरिणाम पूरा हट जाने पर भी उस परिणाम में कुछ मालिन्य बनाये रखनेवाला चौथा संज्वलन कषाय है । विषय से उपेक्षा हो जाने को चारित्र कहते हैं, पूर्ण उपेक्षा के समय जो चारित्र होता है उस चारित्र को रखते हुए उसके साथ वह कषाय जाज्वल्यमान बना रहता है, इसीलिए संज्वलन नाम सार्थक है। छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज से आगे दसवें गुणस्थान तक के योगियों में यह कषाय उत्तरोत्तर कृष होता हुआ टिकता है। इस प्रकार चारों कषायों के ये जुदे-जुदे फल हैं। इन फलों की प्राप्ति जिन कर्मों के उदय से होती है उन कर्मों के भी कार्यकारण सम्बन्ध से ये ही चारों नाम हैं । और भी बहुत से कर्मों के नाम उनके फलों के नाम पर रखे गये हैं । यह बात शरीरादि नाम कर्मों के देखने से माननी पड़ती है। उक्त चार भेद जो कषायों में हुए हैं वे शक्ति तरतमादि अवस्था के रहने से हुए हैं। प्रत्येक कषाय में जाति-भेद चार-चार हैं -- 1. क्रोध, 2. मान, 3. माया, 4 लोभ । चारों के ये चार-चार जाति मानी जावें तो चार कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं : अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरणक्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया, संज्वलन लोभ । कषायवेदनीय चारित्रमोह के ये सोलह भेद हुए । नोकषाय वेदनीय चारित्रमोह के नौ भेद हैं- 1. हास्यवेदनीय, 2. रतिवेदनीय, 3. अरतिवेदनीय, 4. शोकवेदनीय, 5. भयवेदनीय, 6. जुगुप्सावेदनीय, 7. स्त्रीवेदनीय, 8. पुरुषवेदनीय और 9. नपुंसुक वेदनीय । इन नामों पर से जो अर्थ प्रतीत होते हैं वे इनके फल I पहले जो सोलह कषाय कहे हैं उनका असर आत्मपरिणाम पर इतना उत्कृट होता है कि साफसाफ परिणामों की मलिनता दिखने लगती है । दूसरे, जो नोकषाय के नौ भेद कहे हैं उनका भी आत्मा पर असर तो होता है, परन्तु आत्मपरिणामों में कषायों की बराबर मलिनता दिख नहीं पड़ती, इसीलिए सोलह भेदों को कषायवेदनीय कहा और नौ भेदों को नोकषायवेदनीय कहते हैं । हास्यादिक कषाय, कषायों से कुछ कम असर करते हैं, परन्तु कषायों से मिलते जुलते अवश्य हैं—यही अर्थ दो भेद करने का समझना चाहिए। नहीं तो दोनों भेदों का 'चारित्रमोह' ऐसा ही नाम है । यदि और भी व्यापक नाम देखना हो तो मोह नाम एक ही है जिससे कि दर्शनमोह तथा चारित्रमोह इन दोनों का अर्थज्ञान हो सकता है । इससे भी व्यापक नाम देखना हो तो कर्म अथवा प्रकृति है । इस नाम से आठों ही कर्मों का बोध होता है। किसी एक स्वभाव के विशेष- विशेष रहने से भेद हो जाता है और वह विशेषता न मानी जाए तब अभेद से ही व्यवहार होता है । यह सब अपेक्षा की बात है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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