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________________ प्रस्तावना :: 29 आपका पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ 226 आर्या छन्दों में है। इसे 'जिनप्रवचन रहस्यकोश' भी कहा जाता है। इसमें मुख्य रूप से श्रावकाचार एवं गौण रूप से साधु-आचार का संक्षिप्त निरूपण है। इसकी अनेक भाषाओं में टीकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इस ग्रन्थ में हिंसा एवं अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन है वैसा अन्यत्र देखने में नहीं आया। लघुतत्त्वस्फोट-यह एक नवोदित कृति है। अहमदाबाद के डेला भण्डार में मुनिश्री पूण्यविजय जी को इसकी ताडपत्रीय पाण्डुलिपि प्रथम बार सन् 1968 में उपलब्ध हुई थी। इसमें 625 श्लोक हैं। 25-25 श्लोक वाले 25 अध्याय हैं। इसमें 13 प्रकार के छन्दों का उपयोग किया गया है। इसका अन्वय सहित हिन्दी अर्थ पण्डित पन्नालाल साहित्याचार्य ने किया है। इसके अनेक संस्करण अनेक संस्थाओं से प्रकाशित हो चुके हैं। इस भक्तिपूरित काव्यग्रन्थ में जैन तत्त्व; आगम, सिद्धान्त, न्याय दर्शन को अभिव्यक्त किया है। जिस प्रकार समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र में शब्द-अर्थ एवं भाव गाम्भीर्य से चौबीस तीर्थंकरों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को भक्ति से गुंफित किया है इसी का अनुकरण लघुतत्त्वस्फोट में किया गया है। पहला अध्याय चौबीस तीर्थंकरों गणस्मरण से ओतप्रोत है। शेष चौबीस अध्याय जिनेन्द्र भगवान के आगम-सिद्धान्त न्याय दर्शन का पिटारा हैं । यह कृति भक्ति परम्परा को जीवित रखने के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। अनेक गुणगणसम्पृक्त अलंकार प्रयुक्त इस कृति का जन-साधारण में पठन-पाठन का प्रचलन अवश्य होना चाहिए। अमृतचन्द्राचार्य का अनेकान्त एवं स्याद्वाद, सभी टीका-ग्रन्थों का मूलभूत बीज मन्त्र है। वे ग्रन्थों के प्रारम्भ में ही अनेकान्त का स्मरण कर पाठकों को सचेत करते हैं कि अनेकान्त ही जिनागम का जीव-प्राण है, स्याद्वाद उसकी श्वास है। इनके बिना जैनधर्म एवं आगम निर्जीव-निष्प्राण हो जाता है। समयसार की आत्मख्याति टीका के अन्त में स्याद्वादाधिकार अन्तर्गत सैंतालीस शक्तियों, प्रवचनसार के अन्त में स्याद्वादाधीन सैंतालीस नयों का निरूपण तथा पंचास्तिकाय के अन्त में ग्रन्थतात्पर्य के रूप में निश्चयाभास, व्यवहाराभास एवं उभयाभासों का वर्णन कर स्याद्वाद की शैली से उनका निरसन करके समन्वय किया है। तत्त्वार्थसार-जिस प्रकार समयसार की आत्मख्याति टीका में समयसारकलश अध्यात्म विषयक पद्य टीका है, उसी प्रकार तत्त्वार्थसार भी उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की शैली में लिखा हुआ स्वतन्त्र ग्रन्थ है। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि अमृतचन्द्रसूरि ने इसे तत्त्वार्थसूत्र के स्थान पर पद्य का दे रूप दिया है, परन्तु कितने ही स्थानों पर इन्होंने नवीन तत्त्वों का भी संकलन किया है। नवीन तत्त्वों का संकलन करने के लिए इन्होंने अकलंक स्वामी के राजवार्तिक का सर्वाधिक आश्रय लिया है। आस्रव तथा मोक्ष के प्रकरण में तो उन्होंने प्रकरणोपात्त वार्तिकों को पद्यानुवाद के द्वारा अपने ग्रन्थ का अंग ही बना लिया है। उमास्वामी ने गुणस्थान और मार्गणाओं के जिस प्रकरण को छोड़ दिया था, उसे भी अमृतचन्द्राचार्य ने यत् कथंचित् स्वीकार कर विकसित किया है। 100 ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के प्रथम मंगलाचरण के पश्चात् ग्रन्थ-प्रतिज्ञा में अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह तत्त्वार्थसार नामक कृति मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान है जो मुमुक्षुओं के हित के लिए तत्त्वार्थ का ही सार है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति के पहले तत्त्वार्थसार ग्रन्थ के पढ़ने-सुनने, मनन 98. आ. अमृ. व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व, पृ. 361 99. स. सा., श्लो./प्रव. सा. श्लो./पञ्चा. का. / पुरु. सि. श्लो. 100. तत्त्वा.सा., प्रस्ता. पं. पन्नालाल साहि. 101. तत्त्वा. सा., श्लो. 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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