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________________ 28 :: तत्त्वार्थसार शब्दावतार, शान्तिभक्ति, सारसंग्रह, चिकित्साशास्त्र एवं जैन अभिषेक पाठ। आप विक्रम संवत् 526 से पूर्ववर्ती आचार्य थे। इनका विशेष परिचय पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि में दिया है। अकलङ्क भट्ट-ये लघुहब्ब नामक राजा के पुत्र थे तथा भट्ट इनकी उपाधि थी। जैन न्याय एवं दर्शनशास्त्रों के असाधारण पाण्डित्य उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में समाहित था। उन्होंने स्वमतमण्डन परमतनिरसन अकाट्य युक्तियों से किया है। उनके प्रमाणों को कई आचार्यों ने एवं विद्वानों ने सम्मानपूर्वक उल्लेख कर उनके महत्त्व को ऊँचा उठाया है। लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, अष्टशती, प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, स्वरूपसम्बोधन, अकलंकस्तोत्र इनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । अकलंकाचार्य का समय विक्रम की सातवीं शताब्दी है। विद्यानन्दाचार्य-आप जन्मजात ब्राह्मण होते हुए भी परीक्षाप्रधानी थे। इन्होंने जैन धर्म की समीचीन परीक्षा करके उसे स्वीकार किया था। इससे सिद्ध होता है कि आप दर्शनशास्त्र में पारंगत बहुश्रुतधर विद्वान थे। अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आपके द्वारा रचित कृतियाँ हैं। आपका समय विक्रम संवत् 822 से 897 तक माना जाता है। बालचन्द्रमुनि-तत्त्वरत्नप्रदीपिका के रचयिता बालचन्द्र मुनि हैं। ये नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे। आप कन्नड़ कवि तथा संस्कृत एवं प्राकृत के अनेक ग्रन्थों के टीकाकार हैं। भास्करनन्दि-व्यावहारिक परिचय में आप जिनचन्द्राचार्य के शिष्य थे। आपका सम्भावित समय 1300 ई. माना गया है। आपने सुखबोधवृत्ति-टीका रची थी। श्रुतसागर-आप मूलसंघ के कट्टर विद्वान थे। आपके गुरु का नाम विद्यानन्दी था। षट्प्राभृत टीका, महाभिषेक टीका, जिनसहस्रनामी टीका, तत्त्वत्रय प्रकाशिका, औदार्य चिन्तामणि, यशस्तिलकचन्द्रिका, तत्त्वार्थवृत्ति, एवं व्रतकथाकोष आपकी कृतियाँ हैं। आप सोलहवीं शताब्दी के आचार्य थे। ____ अमृतचन्द्रसूरि-अनगार धर्मामृत की भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका में दो स्थानों पर आशाधर सूरि ने ठक्कुर नाम से उल्लेख किया है। यह ठक्कुर या ठाकुर पद जागीदारों के लिए प्रयुक्त होता था। इससे आपकी गृहस्थ जीवन की समृद्धि का परिचय झलकता है। आपके दीक्षा जीवन काल का परिचय अज्ञात है। आपने अपने मूल ग्रन्थ एवं टीका ग्रन्थों में भी कर्ता बुद्धि से ऊपर उठने के लिए भाव प्रकट किया है कि नाना प्रकार के वर्गों से पद बन गये, पदों से वाक्य और वाक्यों से ग्रन्थ बन गया। इसमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना गया है। __ आप संस्कृत भाषा के महान् उद्भट विद्वान् एवं अध्यात्मतत्त्व के मर्मज्ञ थे। आपने कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थ पर कलश सहित आत्मख्याति टीका, प्रवचनसार ग्रन्थ पर तत्त्वप्रदीपिका टीका, पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ पर समय व्याख्या गद्य-टीकाएँ लिखीं हैं जो संस्कृत वाङ्मय की अमूल्य निधि हैं। समयसार की आत्मख्याति टीका में जिन कलश-छन्दों का उपयोग किया गया है; इससे ध्वनित होता है यह टीका गद्य-पद्य दोनों शैली का अनुगमन करती है। काव्य लक्षणकारों ने इसे चम्पूकाव्य कहा है।" 93. सर्वा. सि., टी. प्रस्ता. 94. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 375 95. अन. धर्मा. पृ. 160, 588 96. पु. सि., तत्त्वा. सा., स. सा., पंच. का., प्र. सा. श्लोक 97. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेव प्रसाद उपाध्याय, पृष्ठ 414 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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