________________
240 :: तत्त्वार्थसार
को परतन्त्र करे। जो परतन्त्रता होती है वह किसी गुण की ही हो सकती है, इसलिए या तो सर्वकर्म घाति ही होने चाहिए और या जो घाति नहीं हैं वे कर्म भी न होने चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि आठों ही कर्मों के घातने योग्य जीव के आठ गुण कहीं-कहीं पर लिखे गये हैं। जबकि आठों ही कर्म गुणों के घातने वाले हों तो चार को अघाति कहकर शेष चार को भी क्यों घाति कहना चाहिए?
उत्तर-जो घाति कर्म हैं वे वास्तविक और सविकल्प तथा अनुजीवी गुणों को घातते है और अघाति कर्म निर्विकल्प तथा प्रतिजीवी गुणों को घातते हैं। प्रतिजीवी गुण एक ऐसी बात होती है कि उन्हें गुण न कहकर स्वभाव कहें तो भी चलता है। प्रतिजीवी गुण अपनी वास्तविक सत्ता नहीं रखते, किन्तु दूसरे प्रतिपक्षी गुणवाले पदार्थ की अपेक्षा से एक किसी वस्तु को उस प्रतिपक्षी से उल्टी मनाना यही प्रति गुण या स्वभाव का अर्थ है, इसीलिए उन गुणों को यदि वास्तविक न माना जाए तो कुछ अनुचित नहीं है। जैसे कि सुक्ष्मत्व स्वभाव जो किसी वस्तु में पाया जाता है वह एक-दूसरे स्थूलत्व गुणवाले पदार्थ से भिन्नता की अपेक्षा से। इसी प्रकार सर्व प्रतिजीवी गणों की कल्पनाएँ की जाती हैं. उन्हें गण कहके स्वभाव मात्र कहें तो भी कुछ हानि नहीं है। अघाति कर्म जिन गुणों को घातते हैं वे भी ऐसे ही प्रतिजीवी गुण हैं, इसलिए उन्हें गुणघाती न मानकर स्वभाव के विरोधी मानें तो भी ठीक होगा और उन कर्मों को अघाति कहना भी सम्भव हो जाएगा। देखिए, अघाति चारों कर्मों से जो चार गुण घाते जाते वे ये हैं, 1. वेदनीयकर्म से घाता जानेवाला गुण अव्याबाध, 2. आयु:कर्म का प्रतिपक्षी अवगाहन गुण, 3. नामकर्म का सूक्ष्मत्व गुण । 4. गोत्रकर्म का अगुरुलघु गुण। इन चारों में से एक भी ऐसा गुण नहीं है जो कि घाति कर्मों द्वारा घाते जानेवाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणों की तरह साक्षात् सत्तावान् अनुजीवी गुण हो।
अघातियों का अघातिपना
परस्पर में एक दूसरी चीजें मिलने पर जो संघटन होता है उससे चीजों में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। ये चीजें स्वस्थ अवस्था में रह नहीं पाती हैं। बस इसी को बाधा या व्याबाधा कहते हैं। ऐसे क्षोभ के निमित्त मिलने पर जो आत्मा में व्याबाधा उत्पन्न होती है उसका अन्तरंग कारण वेदनीय कर्म माना जाता है। सर्व प्रकार की मोहजन्य विषयाकांक्षाओं के अनुभव कराने में आत्मा को लगाने वाला वेदनीय कर्म है। वेदनीय, वेद्य या वेदन शब्दों का तात्पर्यार्थ भी यही होता है, और इसीलिए वह मोह के उदय बिना अपना फल नहीं दिखा सकता है। उस वेदनीय के नष्ट हो जाने से जो आत्मा में क्षोभ मचाने वाली व्याबाधा थी वह नहीं रहती। उसी समय कहा जाता है कि अव्याबाधा अवस्था या गुण प्रकट हुआ। यहाँ देखने की बात यह है कि क्या तो पहले वेदनीय की उदयावस्था में नहीं था और क्या अब वह प्रकट हो गया? कुछ नहीं, जो विकार हो जाने के कारण बाधा-संवेदन होता था, वह नहीं रहा। इसे वास्तव में कोई गुण नहीं कह सकते हैं। केवल विरुद्ध अवस्था के संवेदन का अभाव हो गया है, इतनी अपेक्षा लेकर यदि चाहें तो उसे प्रतिजीवी गुण कह सकते हैं, नहीं तो कुछ नहीं है और वह भी असली कार्य मोहनीय का है और मोहनीय घातिकर्म है। जो अशुद्ध अवस्था हुई वह तो मोह का ही कार्य है; वेदनीय केवल उस अवस्था में सुखी-दुःखी बनाने की तरफ जीव को उन्मुख करता है, इसीलिए उस कार्य को
1. 'गुणाः स्वभावा भवन्ति स्वभावा गुणा भवन्ति न भवन्ति च।' आ.प. ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org