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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 241 वास्तव में मोह का ही कहना चाहिए। यदि मोह का वह कार्य न होकर केवल वेदनीय का ही होता तो इसे भी घाति अवश्य कहना पड़ता और फिर मोह को जुदा मानने की आवश्यकता भी न रहती। जो लोग केवल वेदनीय को भी कार्यकारी मानते हैं उन्हें इसका उत्तर देना चाहिए कि वेदनीय घाति क्यों नहीं है? इसीलिए तो आचार्यों ने उसे घाति नहीं माना क्योंकि मोह न रहने पर वह कुछ कार्यकारी नहीं होता। देखिए, ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर आगे मोह नहीं रहता, इसलिए वेदनीय कुछ भी कार्य वहाँ नहीं कर पाता है। यदि वह वहाँ कुछ कार्य करे तो यों कहना चाहिए कि तेरहवें गुणस्थान में भी दुःख-अशान्ति छूट नहीं पाती। जबकि ऐसा है तो तेरहवें गुणस्थान को जीवनमुक्ति कहना भी ठीक नहीं बनेगा। जीवन्' का अर्थ अघाति कर्मोदय है, और मुक्ति का अर्थ कर्मकृत दु:खों से पूरा' छूट जाना है। ऊपर के कथन से यह सिद्ध हआ कि वेदनीय किसी गुण का घातक न होने से अघाति है। आय कर्म को देखिए, आयु कर्म का कार्य शरीर या भव में जीव को रोक रखना है। इसी को यों कह सकते हैं कि वह अवगाहन-गण को घातता है। इससे यह फलितार्थ सिद्ध हआ कि शरीर में रुकने का नाम अवगाहनघात है। अब यहाँ यह देखिए कि अवगाहन क्या है और उसका घात क्यों हआ है? क्षेत्र की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई के परिमाण को अवगाहन कहते हैं अथवा उस परिणाम में समाकर रहना सो अवगाहन है। जीव की शुद्ध अवस्था का और अशुद्ध अवस्था का अवगाहन तो एकसा ही होता है, परन्तु प्रदेश संख्या की तरफ देखें तो जीव के प्रदेश उतने हैं जो कि लोकाकाश भर में पसर सकें और एक-दूसरे से जुदे भी न हों। केवलीसमुद्घात में ऐसा माना भी गया है कि आत्मा के प्रदेश उतने हैं जो कि लोकाकाश भर में पसर सकें और एक-दूसरे से जुदे भी न हों। केवली समुद्घात में ऐसा माना भी गया है कि आत्मा के प्रदेश परस्पर लोकाकाश भर में क्षणभर के लिए व्याप जाते हैं। इतर समयों में सदा शरीर परिमाण होकर रहते हैं और मुक्त होने पर भी अन्तिम शरीर से कुछ कम के बराबर ही विस्तृत रहते हैं। जब अवगाहन शब्द का यही अर्थ है तो इसमें घात किसी का भी नहीं हुआ। जब तक कर्मबन्धन है तब तक प्रदेशों के विस्तार में हीनाधिकता होती रही और कर्म न रहने पर प्रदेशविस्तार कायम होकर टिका रहा, इसीलिए जो अवगाहन के परिवर्तन होते रहने का कार्य आयुःकर्म करता है वह वास्तविक कोई घात नहीं है, जैसा कि ज्ञानावरणादि के उदय से ज्ञानादि गुणों का घात होता रहता है। हाँ, अवगाहन गुण का उसे घाति बताने का मतलब यह समझना चाहिए कि वह कर्म उस अवगाहन का फेरफार करता रहता है। प्रथम तो अवगाहन कोई अनुजीवी सत्तात्मक गुण ही नहीं है और फिर अवगाहन के फेरफार से उसका घात हुआ मानना ही भूल है। ‘घात' यह शब्द जो आचार्यों ने कहा है उसका अर्थ भी वास्तविक 'घात' ऐसा नहीं है, इसलिए इस आयुःकर्म को अघाति मानना असंगत नहीं है। तीसरा अघातिकर्म नामकर्म है। यह सूक्ष्मत्व गुण को घातता है। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा अमूर्तिक होने से सूक्ष्म माना जाता है। सूक्ष्म का अर्थ परमाणु की तरह होना, सूक्ष्मता न रहने का अर्थ 1. इसका अधिक खुलासा अन्त में लिखेंगे। 2. आऊबलेण अवछिदि भवस्स इदि आउणाम पुव्वं तु भवमस्सिय णीचुच्च इदिगोदं णामपुव्वं तु॥ गो. क.। 3. करणार्थ में प्रत्यय करने से परिणाम शब्द का पहला अर्थ होगा और भावप्रत्यय करने में यह दूसरा अर्थ होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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