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________________ पाँचवाँ अधिकार : 239 इन आठों कर्मों के जो कार्य कहे वे सुगमता से समझने में आ जाएँ, इसलिए उन्हीं के कार्यों से मिलते हुए लोक में जिन चीजों के कार्य हो सकते हैं, उदाहरणार्थ ' वे चीजें बताते । ज्ञानावरण का उदाहरण परदा है। किसी वस्तु के ऊपर परदा पड़ जाने से वह वस्तु दिखती नहीं है। दर्शनावरण का उदाहरण द्वारपाल है। द्वारपाल के रोक देने से स्वामी का दर्शन नहीं हो सकता है । वेदनीय का उदाहरण शहद लपेटी तलवार है। उसके चाटने से ही सुखानुभव होता है और जीभ कट जाने से दुःखानुभव भी होता है। मोहनीय का उदाहरण मद्य है। मद्य के पीने से मनुष्य अन्तरंग के विचार से शून्य होकर बाह्य विषयों में मोहित हो जाता है । आयु:कर्म का उदाहरण बेड़ी है। बेड़ी पड़ जाने से जीव जहाँ का तहाँ रुका रहता है। नाम कर्म का उदाहरण चित्रकार है । चित्रकार चित्र बनाता है, उसे अच्छे-बुरे, बेढंगे बनाता । गोत्र कर्म का उदाहरण कुम्भकार है; 'छोटे-बड़े अनेक प्रकार के घड़े बना देता है । अन्तराय का उदाहरण भण्डारी है। स्वामी की आज्ञा रहते हुए भी भण्डारी से किसी चीज के मिलने में अन्तराय पड़ता है । उक्त आठ कर्मों में से चार घाति व चार अघाति माने जाते हैं। आत्मगुणों को सीधे घातने वाले जो हों वे घाति कहे जाते हैं । वे घाति चार कर्म हैं— ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय । शेष रहे चार कर्म अघाति हैं, क्योंकि वे किसी आत्मीय गुण को घातते नहीं हैं । वेदनीय सुख-दुःख का अनुभव कराता है, इसलिए घाति - सा मालूम होगा, क्योंकि सुख-दुःख के साधनभूत विषयों में फँसना पड़ता है जिससे कि शान्ति या निराकुलता रूप असली सुख गुण का घात हो जाता है । वेदनीय के द्वारा अव्याबाध गुण का घात होना माना जाता है, परन्तु यह घातनेवाले वेदनीय से नहीं होता, मोहनीय का बल प्राप्त होने पर वेदनीय से होता है, इसलिए वेदनीय असली उस गुण का घातक नहीं है, परन्तु मोहनीय की सहायता से अवश्य उसके कार्य में घाति के कार्य की-सी शंका हो जाती है। यही कारण है कि आठ प्रकृति गिनाने में वेदनीय को घाती कर्मों के बीच में रख दिया है और शेष घाति व अघाति कर्मों को जुदे दो वर्गों में रखा है। यदि ऐसा है तो अन्तराय को सबके पीछे अघातियों के भी अन्त में क्यों रखा है? इसका उत्तर यह है कि अन्तराय कर्म जीव के जिस गुण को घातता है वह गुण है तो जीव का ही; परन्तु वैसा ही वीर्यगुण निर्जीव द्रव्यों में भी रहता है, इसलिए वह गुण एक साधारण गुण है । ज्ञानादि गुणों की तरह जीव' का ही केवल असाधारण नहीं है यह बात दिखाने के लिए जीव की अशुद्धि करने वाले यावत् कर्मों के पीछे से इस अन्तराय को स्थान दिया गया है और यह रहते हुए भी जीव शक्ति को सर्वथा घात नहीं सकता है । इसके सिवाय तीसरा और भी एक कारण है कि नामादि अघाति कर्मों की सहायता बिना वह कुछ कर नहीं सकता है। इससे नामादिक के पीछे लिखना ही न्याययुक्त है 1 शंका-अघाति कर्मों के विषय में यह शंका होना सहज है कि अघाति कर्म जबकि जीव के गुणों को घातते ही नहीं हैं तो उन्हें कर्म क्यों कहना चाहिए ? कर्म का साधारण लक्षण यही है कि वह जीव 1. पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं । जह एदेसिं भावा तहविह कम्मा मुणेयव्वा ॥21॥ गो. क. 2. घादिवं वेयणीयं मोहस्य बलेण घाददे जीवं । इदि घादीणं मज्झे मोहस्सादिम्हि पडिदं तु ॥ 19 ॥ गो.क. । 3. घादीवि अघादिं वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो। णामतियणिमित्तादो विग्धं पडिदं अघादिचरिमम्हि ॥17॥ गो.क. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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