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________________ 238 :: तत्त्वार्थसार से जुदी तरह का दिखाने वाले हैं, इसलिए उन दो भागों को जुदा करके वर्णन किया जाता है । उसी प्रकार 'स्थिति' यह एक बन्धतत्त्व का तीसरा विभाग अवश्य है, परन्तु कर्मपिंड से कोई जुदी चीज नहीं है । आत्मा के साथ जैसी कषाय की तीव्रता वा मन्दता से कर्मबन्ध होता है, वैसा ही वह तीव्रता या मन्दता से आत्मा बद्ध होता है और वैसा ही वह बन्धन की मर्यादा को कायम रख सकता है। एक कर्मपिंड जो मन्द कषाय के द्वारा बँधा है वह अधिक चिपट नहीं सकता है । वह शिथिल ही रह जाएगा, इसीलिए आत्मा में अधिक न टिककर जल्दी ही छूटेगा एवं जो कर्मपिंड किसी ऐसे तीव्र कषाय से बँधा हो जो कि अधिक चिपटा हो वह जल्दी जुदा नहीं होगा। इसी टिकाव का नाम स्थिति है। जब किसी में बन्धन होता है तो कर्म का अधिक टिकाव अवश्य निश्चित हो जाता । उस मर्यादित टिकाव के भीतर स्वयमेव उस बन्ध का विघटन कभी नहीं हो सकता है। इसी का नाम स्थिति है। यदि किसी प्रबल घातक कारण से मर्यादा के भीतर उसका उद्रेक हो जाता है तो उसे स्थिति से पहले उद्रेक हुआ कहते हैं। जैन शास्त्रों में उदीरणा भी उसी को कहा है। कर्मों के टिकाव का हीनाधिक परिणमन किस-किस प्रकार का होता है, उसका प्रयत्न से उच्छेद बीच में ही करना हो तो कैसे किया जा सकता है, इत्यादि प्रयोजन स्थिति स्वरूप दिखाने पर सिद्ध होते हैं; इसलिए यह 'स्थिति' का एक तीसरा विभाग बन्धतत्त्व विवेचन में जुदा रखना पड़ा है। चौथा विभाग इस बन्ध तत्त्व में 'प्रदेशबन्ध' नाम का है। यही विभाग वास्तव में बन्ध के पदार्थ को दिखाता है। इस विभाग में 'प्रदेशों की संख्या कितनी - कितनी बँधती है, उसकी आकृति कैसी होती है, आत्मा के कितने प्रदेशों में वे पुद्गल बँधते हैं' इत्यादि बातों का खुलासा किया जाता है। यह प्रदेशबन्ध बाकी तीन भावरूप बन्धों का आश्रय है, इसलिए यह चौथा 'प्रदेशबन्ध' नाम का विभाग बन्धतत्त्व के प्रकरण में अवश्य कहने योग्य है। प्रकृतिबन्ध के भेद ज्ञान-दर्शनयो रोधौ वेद्यं मोहायुषी तथा । नाम - गोत्रान्तरायौ च मूलप्रकृतयः स्मृताः ॥ 22 ॥ - अर्थ – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय ये मूल प्रकृतिबन्ध के आठ भेद हैं। ज्ञानावरण कर्म ज्ञानगुण को घातता है या प्रकट होने से रोकता है। दर्शनावरण देखने की शक्ति को व्यक्त नहीं होने देता है । वेदनीय सुख तथा दुःख का अनुभव कराता है। मोहनीय कर्म आत्मपरिणति से हटकर बाह्य विषयों में झुकाव कराता है। आयुः कर्म औदारिक, वैक्रियिक शरीरों में जीव को रोकने का काम करता है। नामकर्म शरीर व शरीर के अवयवों को बनाता है, उनमें उचित अनुचितपने को भी उत्पन्न करता है। गोत्रकर्म जीव को शरीर के सम्बन्ध से नीच व ऊँच ठहराता है । अन्तराय जीव के इष्ट प्रयोजनों में तथा जीव की शक्ति में विघ्न डालता है- अपना उदय होने पर शक्ति को प्रकट नहीं होने देता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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