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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 235 संसारी जीव को मूर्तिक ठहराने का अनुमान तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात्। नह्यमूर्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी॥19॥ अर्थ-आत्मा को मूर्तिक ही मानना चाहिए, इसका समर्थन करनेवाला यह एक हेतु भी है कि आत्मा मूर्तिक है तभी तो मद्य का परिणाम उस पर होते दिखता है। कहीं अमूर्तिक आकाश को भी मदिरा मद पैदा कर सकती है? नहीं, परन्तु आत्मा को तो अपने मद से वह मोहित करती है, इसलिए मानना चाहिए कि मूर्तिक मद्य से मोहित हो जाने वाला आत्मा भी मूर्तिक है। भावार्थ-आत्मा का असली स्वभाव तो अमूर्तिक ही मानना पड़ता है जो कि युक्ति से सिद्ध है, परन्तु बन्धन की विचित्र शक्ति होने से संसारदशा में उसे मूर्तिक भी मानना पड़ता है। अमूर्त आत्मा का बन्ध मूर्त कर्मों द्वारा नहीं हो सकता और बन्धन है ही इसलिए अनादि बन्धन को अतर्कनीय ठहराकर आत्मा को बन्ध पर्याय में मूर्त बताया जाता है जिससे बन्धन न हो सकने की शंका न रहे। इसके बदले में यदि कर्म भी अमूर्तिक माने जाएँ और उसी आत्मा के गुण माने जाएँ तो क्या बाधा है? ऐसा मानने से मूर्त ठहराने की क्लिष्ट कल्पना करनी न पड़ेगी। नैयायिकों ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना ही है। इस प्रश्न का उत्तर गुणस्य गुणिनश्चैव न च बन्धः प्रसज्यते। निर्मुक्तस्य गुणत्यागे वस्तुत्वानुपपत्तितः॥20॥ अर्थ-आत्मा को गुणी द्रव्य और कर्मों को उसका गुण माना जाए तो दोनों का बन्धन होना सिद्ध नहीं होगा। क्योंकि गुणी व गुण का तादात्म्य सम्बन्ध रहने पर भी वह बन्धन नहीं कहा जाता है। बन्धन जुदी-जुदी दो चीजों का ही होता है। यदि यह गुण-गुणी का बन्ध ही माना जाए तो यह तो विचारिए कि कर्मबन्धन मुक्ति होने के समय टूट जाता है। यदि ये कर्म गुण थे तो यों कहना चाहिए कि मुक्ति के समय य आत्मा के गुण का नाश हो जाता है। जहाँ गुण का नाश हो जाएगा वहाँ गुणी भी नष्ट हो जाएगा; क्योंकि गुणों के बिना द्रव्य की सत्ता कोई चीज नहीं हो सकती अथवा यों कहिए कि द्रव्यों में जो गुण रहते हैं वे द्रव्यों के लक्षण होते हैं। गुणों से ही द्रव्य जानने में आता है। जुदा द्रव्य का कोई स्वरूप नहीं सिद्ध होता, इसलिए किसी गुण का नाश, मानो उस द्रव्य के लक्षण का नाश है। जब लक्षण का ही नाश हो चुका तो लक्ष्य पदार्थ किस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है ? बस, गुण के नाश के साथसाथ द्रव्य का भी नाश हो जाएगा। परन्तु सत्' का विनाश कभी हो नहीं सकता है, इसलिए कर्म को गुण नहीं मानना चाहिए। कर्म को अमूर्तिक आत्मगुण माना जाए तो दु:ख का उसके द्वारा होना तथा शरीर बन्धन प्राप्त होना असम्भव हो जाएगा यह बात पहले और भी इसी प्रकरण में कही जा चुकी है। दूसरा एक दोष यह भी आता है कि कर्म यदि गुण हैं तो गुण का कभी नाश नहीं होता, इसलिए आत्मा कभी कर्म से मुक्त ही नहीं हो सकेगी। 1. भावस्य णस्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। पं. का. 15, तथा नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। इति गीता। 2. पौद्गलिकं कर्मेत्येतदसिद्धमात्मगुणत्वात्तस्येतितन्नामूर्तेरनुग्रहोपघाताभावात्। -रा.वा. 8/2 वा. 6 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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