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________________ 234 :: तत्त्वार्थसार बन्ध के सहारे से दूसरे उत्तरोत्तर बन्ध होते रहते हैं, इसलिए संसारवर्ती जीव जैन सिद्धान्त में वर्तमान शा की अपेक्षा से कथंचित मर्तिक माना जाता है। यदि केवल मर्तिक हो तो मक्त ही क्यों हो! परन्त मुक्त होना युक्ति साध्य है। चैतन्यादि गुणों का इन्द्रियों द्वारा ज्ञान नहीं होता, इसलिए वह शुद्ध स्वरूप जो मुक्त होने पर प्रकट होता है वह अमूर्तिक ही होना चाहिए। इस प्रकार शुद्ध स्वभाव या निजस्वरूप की अपेक्षा से उसे अमूर्तिक मानते हैं। इसलिए केवल मूर्तिक भी नहीं है और केवल अमूर्तिक भी नहीं है यह बात सिद्ध हुई। मूर्तिक कर्म का जब कि बन्ध होता है तो उस आत्मा को भी पूर्वबद्ध कर्म के सम्बन्ध से मूर्तिक कह सकते हैं, इसलिए ऊपर का प्रश्न नहीं रहता। कर्मों से आत्मा का बन्ध इस प्रकार सिद्ध हुआ। मूर्तिकता का हेतु अनादि नित्यसम्बन्धात् सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूर्तत्वमवसीयते॥17॥ अर्थ- अनादि काल से जीव के साथ कर्मों का बन्ध नित्य ही हो रहा है। बन्ध का स्वरूप यह है कि दोनों पूर्वावस्थाएँ छूटकर तीसरी अवस्था प्राप्त हो जाए या उस समय दोनों की एकता प्राप्त हो जाए ऐसा ही बन्ध आत्मा तथा कर्मों का हो रहा है, इसलिए अमूर्त आत्मा में भी मूर्तिकता भासित होती है। अमूर्तिक से मूर्तिक बनने की युक्ति बन्धं प्रति भवत्यैक्यमन्योन्यानुप्रवेशतः। युगपद्भावितस्वर्णरौप्यवज्जीवकर्मणोः॥18॥ __ अर्थ-कर्म व आत्मा के प्रदेश परस्पर में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिए बन्ध की अवस्था में जीव की स्थिति मूर्तिक माननी पड़ती है। जब कि मूर्तिक कर्मों से एकता हो चुकी है तो आत्मा को भी मूर्तिक क्यों न मानना चाहिए? दृष्टान्त-एक साथ सुवर्ण तथा चाँदी को यदि गलाया जाए तो दोनों मिलकर एकमय हो जाते हैं। क्या उस हालत में चाँदी व सुवर्ण को कोई जुदा-जुदा बता सकता है ? नहीं, जो चाँदी का स्वरूप है वही सुवर्ण का है और जो सुवर्ण का स्वरूप है वही चाँदी का है। चाँदी सफेद है इसलिए उस मिश्रित सुवर्ण को भी सफेद कहना पड़ता है और सुवर्ण पीला होता है, इसलिए उस सुवर्ण मिश्रित चाँदी को भी पीला कहा जाता है। हाँ, यदि वे दोनों जुदे करा दिये जाएँ तो चाँदी पीली नहीं रह सकती और सुवर्ण सफेद नहीं रह सकता है। इसी प्रकार कर्म के बन्धन से जीव मूर्तिक व कर्म चेतन बन जाते हैं, परन्तु जुदा करने पर कर्म जड़ व जीव अमूर्तिक ही रहेगा। जुदा होने पर अपने-अपने मूल स्वभाव को पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि स्वभावों का सम्बन्ध तादात्म्य और शाश्वत होता है। खैर ! शुद्ध होने पर चाहे जीव कैसा ही हो, बन्ध के समय मूर्तिकता जबकि सिद्ध हो चुकी तो कर्मों के साथ बन्धन होने में कोई बाधा नहीं रही। आत्मा को मूर्तिक ठहराना इतना ही हमारा प्रयोजन है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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