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पाँचवाँ अधिकार : 233
सिद्ध नहीं हो सकेगा । गुणी में गुण सदा तादात्म्य सम्बन्ध से रहते हैं, इसलिए उनका बन्धन कहना अयुक्त होता है । बन्धन उसी का किसी चीज में माना जा सकता है जो स्वयं जुदी - जुदी चीजें हों। इसी प्रकार यदि वह गुण हो तो आत्मा को सुखी व दुःखी नहीं कर सकेगा। जो वस्तु का गुण होता है वह अपने आश्रयभूत द्रव्य को कभी विकारी नहीं बनाता। विकारी वही बना सकता है विजातीय हो । जो गुण होता है वह सजातीय होता है और इसलिए कभी अपने आश्रयी द्रव्य में विकार भाव पैदा नहीं करता, परन्तु कर्म जीव के सर्वज्ञत्वादि जो अनन्त गुण हैं उनका तिरोभाव कर उसे विकृत बना देता है, शरीर में बँधकर स्वभावविरुद्ध हो ठहर जाता है ।
जैसे कि अमूर्त आकाश दिशा आदि अमूर्त पदार्थों का न तो अनुग्राहक ही होता है और न प्रतिघात ही करता है कि अमुक-अमुक दिशा अमुक-अमुक आकाश के प्रदेश तक मानी जाए, लोगों की जैसी कल्पना होती है उसी प्रकार वे कर लेते हैं, आकाश उसमें कुछ भी व्यवधान या बाधा नहीं देता। क्योंकि, अमूर्त का अमूर्त से कुछ बनता बिगड़ता नहीं, इसी प्रकार अमूर्त आत्मा का गुण यदि कर्म होता तो उससे उसका कुछ विकार भाव न होता, पर देखा तो जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि कर्म आत्मा का गुण नहीं है।
कर्म की मूर्तिमत्ता सिद्धि
औदारिकादि-कार्याणां कारणं कर्म मूर्तिमत् ।
न ह्यमूर्तेन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते ॥ 15 ॥
अर्थ — इसके सिवाय यदि कर्म आत्मा का गुण है यह किसी प्रकार मान भी लिया जाए तो आत्मा अमूर्त होने से उसका गुण भी अमूर्त ही होगा और जब कर्म अमूर्त सिद्ध होगा तो उससे औदारिक आदि मूर्त शरीरों की जो उत्पत्ति देखी जाती है वह भी सिद्ध न हो सकेगी, क्योंकि अमूर्त पदार्थ से मूर्त पदार्थ की उत्पत्ति होना न्याय बाधित है। कभी किसी ने कहीं न देखी और न सुनी है ।
न च बन्धाप्रसिद्धिः स्यान् मूर्तैः कर्मभिरात्मनः । अमूर्तेरित्यनेकान्तात् तस्य मूर्तित्वसिद्धितः ॥16 ॥
अर्थ - अच्छा! यदि कर्म मूर्तिक है तो अमूर्त आत्मा के साथ उनका बन्ध किस तरह हो सकता है, क्योंकि अभी ऊपर भी अमूर्त का मूर्त से सम्बन्ध नहीं होता यह सिद्ध कर आए हैं। यह हुआ प्रश्न। अब इसका इस श्लोक में उत्तर देते हैं। इस दोष को हटाने के लिए आत्मा को अनादि से कर्मबद्ध मानते हैं। अनादि स्वभाव मानने में तर्क नहीं हो सकता है। जैसे कि शुद्ध' हुए सोने को यदि कोई चाहे कि मिट्टी, धूल में मिलाकर अशुद्ध कर दे तो नहीं कर सकता है, परन्तु खान में से जब निकलता है तब मल से लिप्त या व्याप्त रहता ही है । वह उसकी अशुद्धता अनिमित्तक है, अनादिकालीन है। क्यों हुई? इस प्रश्न की वहाँ आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार जीव व कर्मों का बन्ध अनादि से है और उस
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1. शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ति ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साद्यनादी तयोव्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ||100 || अशुद्धेः पुनरभव्यत्वलक्षणाया व्यक्तिरनादिस्तदभिव्यञ्जकमिथ्यादर्शनादिसंततेरनादित्वात् । (अ.सह.) इस उदाहरण से जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अतर्कणीय
सिद्ध होता है।
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