SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 236 :: तत्त्वार्थसार कर्मों का विशेष स्वरूप प्रकृतिस्थितिबन्धौ द्वौ बन्धश्चानुभवाभिधः । तथा प्रदेशबन्धश्च ज्ञेयो बन्धश्चतुर्विधः ॥ 21 ॥ अर्थ — प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभवबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बन्ध के चार प्रकार होते हैं । प्रकृति का अर्थ स्वभाव' है। वह कर्मरूप पर्याय जब तक बना रहता है तब तक की काल मर्यादा को स्थिति कहते हैं। रस विशेष जो उत्पन्न होता है जिसको कि आत्मा अनुभव करता है उसका नाम अनुभवबन्ध या अनुभागबन्ध है। परमाणु पुंजों की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं । भावार्थ- -घट को परिणमाने की उपादान शक्ति या योग्यता जिस प्रकार घट के अवयवों में मानी जाती है तभी घट पर्याय का प्रादुर्भाव होता है । अथवा, जीव में शरीरादि पूर्ण करने की पर्याप्ति नामक शक्ति जब मानते हैं तभी उन पर्याप्तियों से प्राण कार्य उत्पन्न होते हैं। यदि पर्याप्ति न हों तो प्राण उत्पन्न नहीं हो सकते । प्राण कार्य होते हैं और पर्याप्ति कारण । अथवा, पुद्गलों में जब कि स्पर्श गुण होता है तो उसके शीतोष्णादि उत्तरभेद कार्यदशा के समय अनुभव में आते हैं। मूल में यदि कोई स्पर्शगुण न हो तो शीतोष्णादि पर्याय किसके उत्पन्न हों ? इसलिए यों कहना पड़ता है कि शीतादिक विशेष धर्म हैं और स्पर्श, यह एक सामान्य गुण या धर्म है। इसी प्रकार सामान्य विशेषता और कार्यकारणता सर्वत्र भरी हुई है, किसी गुण या द्रव्य का स्वभाव इससे शून्य नहीं है । इसी प्रकार प्रकृति और अनुभाग की बात है। प्रकृति, यह कर्मों का सामान्य स्वभाव या धर्म है और अनुभाग उसकी विशेषता का नाम है। विशेषता सामान्य को छोड़कर नहीं रहती, इसीलिए प्रकृति को छोड़कर अनुभाग नहीं रहता । अनुभाग का अर्थ, कर्म का रस विशेष है तो प्रकृति का अर्थ कर्म का सामान्य स्वभाव । प्रकृति रूप स्वभाव पुद्गल की एक विभावपर्याय है, परन्तु उस प्रकृति को प्रकट करने की शक्ति पुद्गल मात्र में रहती है। केवल कार्माण वर्गणा तैयार होने पर बँधने की विचित्रता से वह प्रकट हो जाती है। ज्ञानावरणादि बन्ध हो जाने पर भी वह प्रकृति रहती है । यह प्रकृति उतने प्रकार की होती है जितने प्रकार की बोलने में आ सकती है। ज्ञानावरणादि मूल आठ भेद, एक सौ अडतालीस उत्तर भेद तथा मति, स्मृति इत्यादि अथवा अवग्रह, ईहा इत्यादि अथवा तिर्यग्गति के सिंह, घोड़ा, बैल एवं कर्मभूमि तिर्यंच भोगभूमि तिर्यंच इत्यादि जो उत्तरोत्तर भेद कहे जाते हैं वे सब मतिज्ञानावरण की तथा तिर्यंचगति कर्म की उत्तर भेद रूप प्रकृतियाँ हैं । इस उदाहरण को देखकर उत्तरोत्तर प्रकृति भेदों को समझ लेना चाहिए। ये सभी प्रकृतियाँ ही हैं । इन प्रकृतियों में रहनेवाला अनुभाग पर्याय वह है जो भोगने में आता है । उसका अनुभाग जो भोगने 1. प्रकृतिः स्वभाव इत्यनर्थान्तरं । यथा निम्बस्य का प्रकृतिः ? तिक्ततास्वभावः । तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः ? अर्थानवरामः । रा.वा. 8/3, वा. 4 2. तत्स्वभावादप्रच्युतिः स्थिति: । - रा.वा., 8/3 वा. 5 3. तद्रसविशेषोऽनुभवः । यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेषस्तथा कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेषोऽनुभवः । रा.वा., 8/3, वा. 6 4. इयत्तावधारणं प्रदेशः । रा.वा., 8/3 वा. 7 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy