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________________ 228 :: तत्त्वार्थसार जो मानना है वह विनय मिथ्यात्व है और इस सिद्धान्त के माननेवाले लोग वैनयिक मिथ्यात्वी हैं । वैनयिक मिथ्यादृष्टियों के वशिष्ट, पाराशर आदि बत्तीस भेद ऊपर दिखला आये हैं। मिथ्यात्व' के पाँच भेदों की आवश्यकता (1) एकान्त मिथ्यात्व उनके लिए कहा गया है कि जो स्याद्वाद दर्शन के विरुद्ध किसी न किसी एकान्त पक्षों को मानते हैं। जैन दर्शन का शेषदर्शनों के साथ एकान्तदृष्टि से ही निषेध किया गया है नहीं तो बहुत से एकान्तवादियों के सिद्धान्त भी जैनदर्शन के अनुकूल हो जाते हैं। जैनदर्शन के सिवाय जितने दर्शन हैं वे सभी एकान्तवादी हैं, इसलिए वे सब एकान्त मिथ्यादृष्टि ही माने जाते हैं। उदाहरणार्थ, बौद्धदर्शन एकान्तमिथ्यात्वी है; क्योंकि वह वस्तु मात्र को पूर्वापर सम्बन्ध रहित क्षणस्थायी मानता है, परन्तु क्षणिकता के साथ नित्यता स्वरूप माने बिना काम नहीं चल सकता है। यदि निरन्वय वस्तुएँ हों तो बीज की आवश्यकता अंकुरोत्पत्ति में क्यों होनी चाहिए? इस प्रकार सभी एकान्तवाद दूषित हो जाते हैं। (2) विपरीत मिथ्यादृष्टि वे होते हैं जो कि धर्मक्रियाओं को विपरीत कहते हैं। सबसे बड़ा इसका उदाहरण यज्ञ सम्बन्धी' पशुवध है। संकल्प करके किसी निरपराध को मारना सभी निष्पक्ष मनुष्यों की दृष्टि में पाप है। ऐसे सर्वसम्मत पाप को जो धर्म समझता है वह सबसे बड़ा विपरीतज्ञानी है। उसके अनात्मज्ञान को अथवा मिथ्यात्व को विपरीत मिथ्यात्व कहा जाता है। यों तो एकान्त मिथ्यात्व भी स्याद्वाद की अपेक्षा विपरीत होने से विपरीत मिथ्यात्व कहा जाता है, परन्तु वह विपरीतता कुछ ज्ञानियों की ही समझ में आ सकती है, सर्वसामान्य की दृष्टि में सुगमतया नहीं आ पाती। पर, हिंसा वध को धर्म बनानेवाला सभी की दृष्टि में विपरीत भासने लगता है, इसलिए वधादि प्रसिद्ध विपरीत धर्माचरणों को विपरीत मिथ्यात्व में गर्भित करना उचित है। ___ (3) सत्यधर्म के पास तक पहुँच कर भी उसमें शंकित बने रहना, जिससे कि दृढ़ता के साथ धर्म में प्रवृत्ति नहीं हो सके, संशय मिथ्यात्व है। यह बात भी तभी तक होगी जब तक कि वास्तविक आत्मज्ञान प्रकट न हुआ हो। जो आत्मज्ञानी हो चुका है वह आत्मा के बन्धमोचनादि के स्वरूप में भ्रान्त क्यों होगा? इसीलिए यह भ्रान्तता मिथ्यात्व है। सर्वथा सत्य जैन धर्म में आ पहुँचने पर भी यह भ्रान्तता बनी रहती है; यह बात दिखाने के लिए यह भ्रान्तता मिथ्यात्व का भेद संग्रह किया है, इसीलिए इसका उदाहरण श्वेताम्बर धर्म को माना है और भी ऐसे संशय मिथ्यात्व के उदाहरण हो सकते हैं। (4) वस्तु को सामान्य-विशेष स्वरूप पदार्थ नहीं जानना-अपने मन की प्रेरणा से जो चाहे मानना यह आज्ञानिक मिथ्यात्व है। इसके उदाहरण मस्करी आदि संन्यासियों के भेद हैं। आत्मा के अमूर्तित्व आदि सामान्य धर्मों में तथा उपयोग आदि रूप विशेष धर्मों में जब अज्ञान रहता है तब ही मनोनीत कल्पनाएँ उत्पन्न होती है, इसीलिए वास्तविक ज्ञान के अभाव से उसको मिथ्यात्व में दिखलाया है। (5) गुणग्रहण की अपेक्षा से अनेक धर्मों में प्रवृत्ति होना सो वैनयिक मिथ्यात्व है, अर्थात् वैनयिक की प्रवृत्ति में अज्ञान मुख्य कारण नहीं है, किन्तु विनय स्वभाव का अतिरेक मुख्य कारण है, इसीलिए 1. तत्त्वार्थराजवार्तिक में तथा इस ग्रन्थ में आज्ञानिक मिथ्यात्व का दृष्टान्त दिया है और यहाँ जो विपरीत मिथ्यात्व को कहा है वह गोम्मटसार जीवकांड की 16वीं गाथा के अनुसार है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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