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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 229 यह पाँचवाँ भेद अज्ञान से जुदा दिखाना पड़ा है। इसका लक्षण ऊपर के चारों से भिन्न है और ऐसे मिथ्यादृष्टियों की संख्या भी बहुत है, इसलिए इसे एक जुदा मिथ्यात्व वैनयिक अनात्मज्ञानों की गिनती में आता है। अनात्मज्ञान का ही नाम मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व का सामान्य लक्षण भी वैनयिक में रहता है। वैनयिक का उदाहरण तापसी लोग हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व के उक्त पाँचों भेद जुदे-जुदे और आवश्यक ठहरते हैं। लोगों के मिथ्याज्ञान और प्रवृत्तियों के प्रकार स्थूलता से ये पाँचों ही बन सकते हैं अधिक नहीं। अधिक भेद करना चाहें तो उन्हीं के वे उत्तर भेद होंगे, इसीलिए मध्यम विस्तार को अच्छा समझकर ये पाँच भेद किये गये हैं। मिथ्याजान को ही मिथ्यात्व कहते हैं. इसलिए मिथ्याज्ञान के कहीं-कहीं पर तीन प्रकार भी दिखाये गये हैं। (1) कुछ लोग हित को समझते ही नहीं है और उस असल हित को चाहते भी नहीं हैं। (2) कुछ लोग हित समझकर भी उसमें संशय करते हुए दिन बिताते हैं। (3) कुछ लोग अहित को हित समझ लेते हैं। इस तीन प्रकार के अज्ञान' से जगत् दुःखी हो रहा है। अविरति का स्वरूप षड्जीव-काय-पञ्चाक्ष-मनोविषय-भेदतः। कथितो द्वादशविधः सर्वविद्भिरसंयमः॥१॥ अर्थ-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच भेद एकेन्द्रिय जीवों में होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-संज्ञी असंज्ञी इन सब को त्रस कहते हैं। इस प्रकार पाँच एकेन्द्रिय व एक त्रस मिलाने से जीवों के भेद छह हो जाते हैं। ये जीव जिन शरीरों में रहते हैं वे जीवित शरीर भी छह प्रकार के होंगे। शरीरों को काय कहते हैं, इसलिए छह जीवकाय भी ये ही कहलाते हैं। इन छह जीवकायों की विराधना करने से न रुकना सो प्राणाऽविरति है इसी को हिंसा कहते हैं। हिंसा के छह भेद विषय की अपेक्षा किये गये हैं। पाँच बाह्य इन्द्रिय और एक अन्तरंग इन्द्रिय मन ये छह इन्द्रिय हुए। इन इन्द्रियों की जो विषयों में निरर्गल प्रवृत्ति होती है उसे छह प्रकार की इन्द्रियाऽविरति कहते हैं । इन्द्रियों को मनचाहे पाप विषयों में न जाने देने से इन्द्रिय की विरति कहलाती है और छहों प्रकार के प्राणियों का वध सर्वथा रुक जाने से हिंसा विरति कहलाती है। ये सब विरति या व्रत या संयम के बारह भेद हुए। इन्हीं बारहों को पुण्यास्रव के प्रकरण में पाँच अहिंसादि व्रतों के नाम से पाँच प्रकार से भी कहा है, अर्थात् पापों के विषय बारह हैं। प्राण व इन्द्रियों के विषयों को पाप कहते हैं और जब हम समुच्चय से लोक के पाप देखते हैं तो हिंसादि पाँच पाप हैं, परन्तु अविरति चाहे किसी प्रकार से भी हो, स्वच्छन्द विषयभोगों में मग्न होने का ही नाम है। 1. हितमेव न वेत्ति कश्चन भजतेऽन्यः खलु तत्र संशयम्। विपरीतरुचिः परो जगत् त्रिभिरज्ञानतमोभिराहतम् ॥ च.प्र.च., आ.वी.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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