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पाँचवाँ अधिकार :: 227
हो चुके हैं उनको हम जीवन्मुक्त कहते हैं । जीवन्मुक्त का अर्थ यह है कि जो परवस्तु संग्रह करानेवाली सर्व क्रियाओं से छूट चुके हैं और रत्नत्रय को मुक्त जीवों की तरह पूर्ण कर चुके हैं, फिर भी अघातिकर्म तथा पूर्वोपार्जित शरीर से जुदे नहीं हो पाये हैं, इसलिए मुक्त होकर भी जीवित हैं - अर्थात् शरीर, आयु, श्वासोच्छ्वास एवं इन्द्रिय प्राणों के रहने से जीवित कहे जाते हैं, परन्तु पुद्गल को बुद्धिपूर्वक अपनाने से पूरे पराङ्मुख हो चुके हैं। ऐसे केवली होकर भी कवलाहार को लें यह परस्पर असम्बद्ध या विरुद्ध कार्य है, ऐसा श्रद्धान अनात्मज्ञान को सूचित करता है जिसे कि हम विपर्ययमिथ्यात्व इस अन्वर्थ नाम से सम्बोधते हैं।
आज्ञानिक मिथ्यात्व का लक्षण
हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम् ।
यथा पशुवधो धर्मः तदाज्ञानिकमुच्यते ॥ 7 ॥
अर्थ - जिस मत में हित और अहित का ही विवेचन नहीं है । संसारी प्राणियों के हित के लिए उपदेश न देकर अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह आज्ञानिक मिथ्यात्व है । इसका सबसे बड़ा उदाहरण यज्ञ में पशुओं का होम करना और फिर उसको धर्म बतलाना है । जो वध किसी भी काल में किसी के लिए वास्तविक हितकारी नहीं हो सकता उसको करने का लोगों को उपदेश देना और यह आशा करना कि इसके करने से तुम्हें धर्म होगा, धर्म की प्राप्ति से स्वर्गादि के सुख मिलेंगे यह बड़ा भारी अज्ञान है । यह सब कोई जानता है कि संसार में अपनी-अपनी जान सबको प्यारी है और छोटेबड़े सभी जीव अपने प्राणों की रक्षा की भरसक कोशिश करते हैं । तब किसी स्वार्थवश पशुओं को मारने की आज्ञा देना और उससे धर्मप्राप्ति का लोभ देना किसी भी हालत में कोई भी विवेकी न्याय या सच्चा ज्ञान नहीं कह सकता ।
इसीलिए जिन शास्त्रों में या जिन मतों के प्रवर्तकों में उपर्युक्त अज्ञान विद्यमान है, उन्हें आचार्य ने आज्ञानिकमिथ्यात्वी बतलाया है और यह कहा है कि उन्हें किसी के भी हित-अहित का ज्ञान नहीं है । यदि हित-अहित का ज्ञान होता तो क्या वे यह नहीं समझ सकते कि जिस क्रिया से दूसरों को दुःख पहुँचता है और ऐसा-वैसा भी दुःख नहीं, सबसे बड़ा दुःख जो कि मौत का है, वह प्राप्त होता है उस क्रिया से विपरीत स्वभाववाले सुख की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
वैनयिक मिथ्यात्व का लक्षण
सर्वेषामपि देवानां समयानां तथैव च ।
यत्र स्यात्समदर्शित्वं ज्ञेयं वैनयिकं हि तत् ॥ ४॥
अर्थ - संसार में जितने भी देव पूजे जाते हैं और जितने भी शास्त्र या दर्शन प्रचलित वे सब सुखदायी हैं, उनमें कोई भेद नहीं है, सबसे मुक्ति या आत्मा के हित की प्राप्ति हो सकती है—ऐसा
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1. एयन्त बुद्धदरसी विवरीयो बह्म तावसो विणओ। इंदोवि य संसइयो मक्कडियो चेव अण्णाणी । गो.जी., गा. 16 । एयंतं विपरीतं विणयं संसइदमणाणं ॥ गो. जी., गा. 17 ॥
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