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________________ 222 :: तत्त्वार्थसार जातीं, किन्तु एक मिथ्यात्व में गर्भित हो जाती हैं, इसलिए दो की संख्या यह भी कम करनी पड़ती है। इस प्रकार 18 की संख्या 148 में कम की गयी है तो भी सर्व प्रकृतियाँ 120 के भीतर ही आ जाती हैं। यह बन्ध कारणों का व बन्ध्यमान प्रकृतियों का विवरण गुणस्थान क्रम से हुआ। शंका-मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय व योग ये पाँचों जो बन्ध के कारण लिखे हैं वे क्या चीज हैं? उत्तर-ऊपर जिस बन्ध का वर्णन हो चुका है उसी के ये पाँचों परिणाम हैं। उन कर्मों का जब विपाक समय आता है तब वे कर्म आत्मा में नाना विकार उत्पन्न करते हैं। पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से मिथ्यात्वादि विकार उत्पन्न होते हैं और उन विकारों के होने से आत्मा पुन: नवीन कर्मों से बद्ध हो जाता है। जब कोई पूर्वबद्ध कर्म उदय में आता है तब फल देकर नष्ट हो जाता है और साथ ही दूसरे नवीन बँध जाते हैं। इस प्रकार जीवकर्म की श्रृंखला बराबर चलती रहती है। कर्म के विपाकवश जीव में जो मिथ्यात्वादि विकार होते हैं, उन्हें भावकर्म कहते हैं। इनमें से प्रत्येक भावकर्म के मूल कारण पूर्वबद्ध द्रव्य कर्म होते हैं। मिथ्यात्व ऐकान्तिकं सांशयिकं विपरीतं तथैव च। आज्ञानिकं च मिथ्यात्वं तथा वैनयिकं भवेत्॥3॥ अर्थ-विपरीत रुचि का नाम मिथ्यात्व है। अतत्त्वश्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है। कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र के श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है। आत्मज्ञान न होने का नाम मिथ्यात्व है। ऐसे अनेक तरह मिथ्यात्व का लक्षण किया जाता है, परन्तु सबका तात्पर्य यह है कि आत्मा के सम्यक्त्व गुण का जो कर्मवश विपरीत परिणमन होता रहता है वह मिथ्यात्व है। सम्यक्त्व एक ऐसा गुण है कि जब तक उसका स्वयं अनुभव न हो तब तक उसका वर्णन नहीं हो सकता है। तो भी उसके रहने से उल्लास, प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य तथा शुद्ध आत्मज्ञान-इत्यादि गुण प्रगट होते हैं। हम उस सम्यक्त्व का साक्षात् वर्णन नहीं कर सकते हैं किन्तु इसके प्रशमादि सहभावी गुणों के चिह्न दिखाकर उसका वर्णन करते हैं। उन गुणों का प्रादुर्भाव मिथ्यात्व के रहते हुए हो नहीं पाता, इसलिए अतत्त्व श्रद्धानादि दोषों को हम मिथ्यात्व कहने लगते हैं। जिस प्रकार तत्त्वश्रद्धानादिक जो गुण हैं वे वास्तविक सम्यक्त्व नहीं हैं, किन्तु सम्यक्त्व के सहभावी दूसरे गुण हैं, उसी प्रकार अतत्त्वश्रद्धानादिक भी स्वयं मिथ्यात्व नहीं, किन्तु मिथ्यात्व के सहभावी दूसरे गुण हैं। जब तक किसी गुण का सीधा अनुभव नहीं हो सकता हो तब तक उसके सहवास से उत्पन्न हुए चिह्नों द्वारा ही उसका अनुभव करना पड़ता है। यही दशा सम्यक्त्व व मिथ्यात्व की है। सम्यक्त्व के रहते हुए एक ऐसा अपूर्व आत्मसम्बन्धी श्रद्धान उत्पन्न होता है कि जिसका अनुभव मिथ्यात्व की दशा में कभी नहीं हो सकता; इसीलिए सम्यक्त्वनामा एक कारण शक्ति का हम अनुमान द्वारा निश्चय करते हैं। उसी सम्यक्त्व गुण का दर्शन मोहकर्म के उदय से विपरीत परिणाम हो जाता है जिसे कि हम मिथ्यात्व कहते हैं और जिससे कि जीव बहिर्मुख बन जाता है-जीव को आत्मा का श्रद्धान नहीं हो पाता, बस इसी का नाम मिथ्यात्व है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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