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________________ पाँचवाँ अधिकार : 223 यद्यपि आत्मा को न जानने देना ज्ञानावरण का कार्य है और आत्मा में थिर न होने देना चारित्र - मोह कर्म का कार्य है तथापि उसके साथ मिथ्यात्व की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञानावरण का काम यह है कि किसी विषय को पूर्ण और कभी-कभी ज्ञात न होने दे, इसलिए आत्मा के श्रद्धान होने को ज्ञानावरण ही केवल रोकता है तो उसके अपूर्णांश का कभी-कभी तो ज्ञान होना चाहिए था, परन्तु आत्मा का ज्ञान थोड़ा-सा भी नहीं होता और कभी भी नहीं होता। इसका कारण क्या है ? इसका कारण वही मिथ्यादर्शन कर्म है कि ज्ञानावरण के क्षयोपशम को कभी भी और थोड़ा-सा भी कार्यकर होने नहीं देता। इसी प्रकार आत्मा में श्रद्धान न होने देने का कारण भी वही मिथ्यादर्शन है, इसलिए जीव को बहिर्मुख बनाए रखनेवाले विकार को मिथ्यात्व और अन्तर्मुख बनाने के कारणभूत गुण के सम्यक्त्व' कहते हैं । यदि बहिर्मुखता के कारण को मिथ्यात्व कहते हैं तो उसी बहिर्मुखता के तो ये कार्य हैं - अतत्त्व श्रद्धानादि प्रकार प्रगट हों। जब तक बहिर्मुखता बनी हुई है तब तक अतत्त्वश्रद्धान भी होगा, कुदेवादिकों में श्रद्धान भी होगा, तत्त्वों से अरुचि भी होगी, आत्मज्ञान से वंचित भी रहना पड़ेगा, इसीलिए इन दोषों में किसी एकेक दोष को मुख्य मानकर अलग-अलग आचार्य, अलग-अलग तरह से मिथ्यात्व का स्वरूप दिखाते हैं और इन दोषों के हटने से जो एकेक प्रकार का स्वाभाविक श्रद्धान प्रगट होता है उसे सम्यक्त्व बताते हैं । जब बहिर्मुखता ही मिथ्यात्व की सूचक है तो अतत्त्व के श्रद्धान करने को भी मिथ्यात्व कह सकते हैं और अज्ञानरूप अन्धता के प्रभाव से तत्त्व में श्रद्धान न हो सकने को भी मिथ्यात्व कह सकते हैं । जिस समय कोई समनस्क प्राणी तत्त्वपरिचय करना चाहें, परन्तु अतत्त्व को तत्त्व समझ बैठे तो उस समय 'अतत्त्वश्रद्धान' यह मिथ्यात्व का लक्षण बताया जाता है, परन्तु जब तक तत्त्वों के जानने की इच्छा ही प्रगट नहीं हुई तो तब तक तत्त्व श्रद्धान के अभाव को मिथ्यात्व कहना पड़ता है। इस तत्त्वश्रद्धानाभाव रूप मिथ्यात्व को अगृहीतमिथ्यात्व कह सकते हैं और अतत्त्व की तत्त्व रूप पोषकवृत्ति ही गृहीत मिथ्यात्व है। अगृहीतमिथ्यात्व अनादि काल से भी जीवों में बना रहता है और गृहीतमिथ्यात्व मिथ्या श्रद्धान करने पर प्राप्त होता है । इसीलिए गृहीतमिथ्यात्व अनादि न होकर सादि ही होता है। इस प्रकार मिथ्यादर्शन के मूल भेद दो हो जाते हैं । अगृहीत को नैसर्गिक भी कहते हैं । अगृहीत मिथ्यात्व रूप अज्ञानभाव मात्र स्वरूप अज्ञानरूप एक ही प्रकार का होता है । इसलिए उसके उत्तर भेद नहीं किये जाते हैं, परन्तु गृहीत के बहुत प्रकार हो सकते हैं, इसलिए उसके मूलभेद जितने हो सकते हैं बताये गये हैं । वे भेद चार हैं- 1. क्रियावाद, 2. अक्रियावाद, 3. अज्ञान, 4. वैनयिक | 1. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥14 ॥ रत्नक. श्रा । 'तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्' । तत्त्वा सू. - अ. 1, सू. 21 'मिच्छंतं वेदंतो जीवो विपरीयदंसणो होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो' इति गो. जी. गा. 17 2. परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधं क्रियाऽक्रियावद्याज्ञानिकवैनयिकमतविकल्पात् । चतुरशीतिः क्रियावादाः कौक्कलकाण्ठे विद्धिप्रभृतिमतविकल्पात्। अशीतिशतमक्रियावादानां मरीचिकुमारोलूककपिलादिदर्शनभेदात् । आज्ञानिकवादाः सप्तषष्टिसंख्यासाकल्यवास्कल्यप्रभृतिदृष्टि भेदात् वैनयिकानां द्वात्रिंशद्वशिष्ठपाराशरादिमार्गभेदात् । वादरायणवसुजैमिनिप्रभृतीनां श्रुतिविहितक्रियानुष्ठायिनां कथमाज्ञानिकत्वमित्युच्यते, प्राणिवधधर्मसाधनाभिप्रायात् । न हि प्राणिवधः पापहेतुधर्मसाधनत्वमापत्तुमर्हति ॥ रा.वा. 8 / 1, वा. 8-10 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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