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________________ पाँचवाँ अधिकार : 221 में होनेवाली कषाय इतना हीनशक्ति होती है कि ऊपर की तीस प्रकृतियों को नहीं बाँधता, परन्तु चार प्रकृतियों को तब भी बाँधता रहता है। चार प्रकृति हैं- ( 1 ) हास्य, (2) रति, (3) भय, (4) जुगुप्सा ये हैं । इन चारों का संवर नौवें के प्रारम्भ से हो जाता है। इस प्रकार आठवें के अन्त तक के कषाय द्वारा बँधनेवाली जो सर्व 36 प्रकृति हैं उनका नौवें से लेकर आगे संवर है। ये छत्तीस प्रकृति जिन कषायों द्वारा बँधती हैं वे कषाय आपस में तो हीनाधिक होते हैं, परन्तु सामान्यता से सभी तीव्र ही कषाय कहलाते हैं। नौवें के जो कषाय होते हैं वे मध्यम कहलाते हैं, परन्तु उनमें भी पाँच तरमता के भेद होते हैं । क्रम से पहले भेद तक पुरुष वेद, दूसरे तक संज्वलन क्रोध, तीसरे तक संज्वलन मान, चौथे तक संज्वलन माया, पाँचवें तक संज्वलन लोभ, बन्ध को प्राप्त हो सकते हैं और अपने-अपने भागों से ऊपर उस प्रत्येक प्रकृति का निरोध हो जाता है। सामान्यता से कहें तो उक्त पाँच प्रकृतियों का दसवें के प्रारम्भ से लेकर संवर हो जाता है। दसवें गुणस्थान में जो कषाय रहता है वह जघन्य होता है । वह कषाय सोलह प्रकृतियों के बन्ध का कारण है। ये सोलह प्रकृति हैं - ज्ञानावरण की पाँच - (1) मतिज्ञानावरण, (2) श्रुतज्ञानावरण, (3) अवधिज्ञानावरण, (4) मन:पर्यय ज्ञानावरण, (5) केवलज्ञानावरण; दर्शनावरण की चार - ( 6 ) चक्षुदर्शनावरण, (7) अचक्षुदर्शनावरण, (8) अवधिदर्शनावरण, (9) केवलदर्शनावरण, तथा ( 10 ) यश: कीर्ति; (11) उच्चगोत्र; अन्तराय की पाँच— (12) दानान्तराय, ( 13 ) लाभान्तराय, ( 14 ) भोगान्तराय, ( 15 ) उपभोगान्तराय और (16) वीर्यांतराय । दसवें से ऊपर इन सोलहों प्रकृतियों का संवरण हो जाता है । इसीलिए ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थान से लेकर आगे जो कुछ प्रकृतियों का आस्रव होता है उसका कारण केवल योग ही होता है। वह प्रकृति एक सातावेदनीय है। योग तेरहवें तक रहता है, इसलिए वहीं तक सातावेदनीय का नवीन बन्ध हो सकता है चौदहवें के प्रारम्भ से योग नष्ट हो जाने से सातावेदनीय का बन्ध भी रुक जाता है। यहाँ से आगे कोई भी प्रकृति बँधने के योग्य नहीं रहती हैं । सर्व प्रकृतियों की संख्या 148 है। उन 148 का चौदहवें में सर्वथा निरोध हो जाता है जैसा कि गुणस्थान क्रम से ऊपर दिखा चुके हैं। उसका जोड़ - प्रथम गुणस्थान से आगे 16 प्रकृति, दूसरे से आगे 25 प्रकृति, चौथे से आगे 10 प्रकृति, पाँचवें से आगे 4 प्रकृति, छठे से आगे 6 प्रकृति, सातवें से आगे 1 प्रकृति, आठवें से आगे 36 प्रकृति, नौवें से आगे 5 प्रकृति, दसवें से आगे 16 प्रकृति, ग्यारहवें से आगे 1 प्रकृति इस प्रकार बन्ध निरुद्ध होने से, ये सब प्रकृतियाँ 16+25+10+4+6+1+36+5+16+ 1 = 120, एक सौ बीस हो जाती हैं। कुल प्रकृतियाँ 148 हैं, परन्तु स्पर्शादि चार यहाँ पर नौवें में जो गिनाई हैं उनके उत्तर भेद 20 होते हैं जो कि चार की संक्षिप्त संख्या' रखने से गर्भित हो जाते हैं । इस प्रकार 20 की जगह 4 संख्या रखने से 16 की कमी हो जाती है एवं दर्शनमोह की सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्व ये दो प्रकृति बन्ध के समय जुदी नहीं मानी' 1. वण्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बन्धुदये ॥34॥ 2. पंच वण दोण्णि छव्वीसमवि य चउरोकमेण सत्तट्ठी । दोण्णि य पंचयभणिया एदाओ बन्धपयडीओ ॥35॥ गो. कर्म । इसमें लिखते हैं कि मोहकर्म की 28 प्रकृतियों की जगह बन्ध के समय 26 ही मानी जाती हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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