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218 :: तत्त्वार्थसार
शंका-आस्रव के प्रकरण में जबकि योग को दिखा चुके हैं तो फिर यहाँ उसे क्यों लिखा?
उत्तर-आस्रव का अर्थ है कि कर्मपिंडों का संग्रह होना और बन्ध का अर्थ आत्मा को परतन्त्र तथा मलिन करने की योग्यता प्रकट होना, इसीलिए आस्रव के प्रकरण में केवल योग द्वारा होता है, परन्तु जबकि बन्ध का प्रकरण है तब कर्मों में आत्मा को मलिन तथा परतन्त्र करने की योग्यता तो प्रकट होती ही है, किन्तु संचय हुए बिना वह कार्य या परिणमन हो किसमें? वह कार्य कर्मपिंड का संचय हुए बिना नहीं होगा, इसलिए बन्ध के समय भी कर्मसंचय के कारण योगों के दिखाने की आवश्यकता प्राप्त हुई। भावार्थ—आस्रव के समय जो योगों को कारण लिखा है और यहाँ बन्ध के समय भी उन्हें जो कारण लिखा है, उन दोनों का अर्थ एक ही हैं। दोनों जगह लिखने पर भी योगों का कार्य भिन्नभिन्न नहीं होता. परन्त प्रदेशबन्ध तथा स्थित्यनभागरूपशक्ति प्रादर्भावरूप बन्ध की मख्यता रखने से आस्रव व बन्ध के दो प्रकरण हो गये और उन्हीं प्रकरणों की मुख्यता से दो जगह एक कारण का नामोच्चारण करना पड़ा है। दो प्रकरण जुदे-जुदे करने का एक मुख्य हेतु यह भी है कि आस्रव व्यापक
ध व्याप्य है। इस प्रकरण में जो कषाय संयक्त को बन्ध होता है वह दसवें गणस्थान से आगे नहीं होता और योग के द्वारा ईर्यापथ कर्म तेरहवें गुणस्थान तक आते रहते हैं, परन्तु उनमें कषाय न रहने से स्थिति व अनभाग उत्पन्न नहीं हो पाते हैं। वे जैसे आते हैं वैसे निकल भी जाते हैं। यदि ये दो प्रकरण बन्ध कारणों के न करते तो योग का एकाकी यह कार्य किस प्रकार ध्यान में आता? यह इस ग्रन्थकर्ता की इच्छा का तात्पर्य हुआ, परन्तु कुछ आचार्यों ने आस्रव का लक्षण ही बन्ध का कारण मात्र ऐसा किया है, इसीलिए वे आस्रव के ही भेदों में उक्त पाँचों कारणों को गिनाते हैं। वे आस्रव में केवल योग को ही गिनाते हों ऐसा नहीं है।
शंका-कषाय को सामान्य एक न कहकर चार भेद कहने का प्रयोजन क्या है ? और प्रथम मिथ्यात्व, अन्त में योग तथा बीच में अविरति आदि तीन कारण ऐसा क्रम रखने का प्रयोजन क्यों है ?
उत्तर-कर्मों के उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस हैं। उनमें से कुछ तीव्र पापरूप हैं, कुछ मध्यम पापरूप हैं, कुछ जघन्य पापरूप हैं और कुछ अपापरूप भी हैं। मिथ्यात्व से लेकर सयोगकेवली तक तेरह गुणस्थान हैं। उनमें से जो नीचे के गुणस्थान हैं वे अल्प विशुद्ध हैं और ऊपर-ऊपर के अधिक विशुद्ध हैं। बन्ध के कारण जो मिथ्यात्वादि पाँच हैं वे भी उत्तरोत्तर घटते जाते हैं, इसलिए उत्तरोत्तर के गुणस्थानों में बन्ध थोड़ी प्रकृतियों का होता है एवं, अधिक पाप प्रकृतियों का बन्ध रुकता भी जाता है; जबकि नीचे-नीचे प्रकृतियाँ बहुत-सी बँधती हैं एवं निकृष्ट बँधती हैं। यही कार्य-कारण सम्बन्ध दिखाने के लिए बन्ध-कारणों के पाँच भेद किये हैं। वे इस प्रकार हैं
मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जिस जीव का मिथ्यात्व गुणस्थान हो रहा है उसको मिथ्यात्वादि पाँचों ही बन्ध के कारण रहते हैं, परन्तु दूसरे गुणस्थान से लेकर मिथ्यात्व कारण नहीं रहता, असंयमादि केवल चार कारण रह जाते हैं। मिथ्यात्व की मुख्यता से बँधने वाली सोलह कर्मप्रकृति का बन्धन होना भी रुक जाता है। भावार्थ वे सोलह प्रकृति तीव्र पाप रूप हैं और उनका बन्ध प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान
1. मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोहादओथविण्णेया। पण पण पणदह तिय चउ कमसो भेदा दु पुवस्स॥ द्र.सं., गा. 30
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