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पाँचवाँ अधिकार :: 217
केही भेद हैं। असंयम, प्रमाद व कषाय ये तीन तो कषाय के भेद मानना स्पष्ट ही है, क्योंकि, साम्परायिक आस्रव में जो पच्चीस क्रियाओं का वर्णन है उसमें मिथ्यात्ववर्द्धिनी क्रिया एवं मिथ्यादर्शन क्रिया का समावेश किया गया है; एवं मिथ्यात्व के विपरीताभिनिवेश एवं अनन्तानुबन्धी के विपरीताभिनिवेश अलगअलग हैं, अतः जो मिथ्यात्व को आस्रव और बन्ध के क्षेत्र में अकिंचित्कर मानते हैं उनकी बहुत बड़ी भूल है। कषाय चारित्र मोहनीय का नाम या कार्य है और मिथ्यात्व दर्शनमोह का कार्य है, परन्तु मिथ्यादर्शन व कषाय के कारण का सामान्य नाम मोहनीय है और मोह मात्र को भी सामान्य दृष्टि से मिथ्यात्व कहते हैं, इसीलिए दोनों को मोहकर्म कहा जाता है। मोह का कार्य जीव के ज्ञान को विपरीत करना है। वह विपरीतता मिथ्यात्व से भी होती है और कषायों से भी होती है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मिथ्यात्व के ठीक साथ रहने वाला जो अनन्तानुबन्धी कषाय है वह सहचर सम्बन्ध से मिथ्यात्व कहा जा सकता है।
असंयम व प्रमाद ये दोनों कषाय के ही कार्य हैं। जब ऐसा तीव्रकषाय होता है जो कि इन्द्रियों से विमुख नहीं होने देता तब संयम का घात होता है और उस कषाय की प्रवृत्ति को असंयम या अविरति कहते हैं। असंयमजनक कषाय दो हैं देशसंयम घातक व सर्वसंयम घातक । सर्वथा जो संयम को घातता है उसका नाम अप्रत्याख्यानावरण है। जो सूक्ष्मसंयम को घातता है और स्थूलसंयम को होने देता है उसका नाम प्रत्याख्यानावरण है। पहले भेद को पूर्ण अविरति कहते हैं और दूसरे को देशविरति कहते हैं; यह अविरति और इसके कारण कर्म दोनों कषाय ही हैं, इसलिए अविरति का संग्रह कषाय में होता है । अविरति या असंयम न रहने पर भी संज्वलन कषाय के उदय से जो मल उत्पन्न होता है या व्यक्त सूक्ष्म कषाय उत्पन्न होता है उसे प्रमाद कहते हैं। इसका कार्य यह है कि शिष्यों में प्रेम, धर्म व धर्म के आयतनों में प्रेम उत्पन्न हो । यह दशा छठे गुणस्थानवर्ती साधु की होती है। यह प्रमाद भी कषाय का ही एक सूक्ष्म उत्तरभेद है।
मिथ्यात्व से लेकर प्रमाद तक के कषाय उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं, परन्तु सभी कषाय । इनके आगे जो चौथा कारण कहा है वह मिथ्यात्व - अविरति -प्रमाद नाम के तीनों कषायों से अतिसूक्ष्म है। वह कषाय सातवें गुणस्थान से दसवें तक रहता है । वह भी संज्वलन कषाय का ही कार्य है, परन्तु प्रमाद से अधिक सूक्ष्म है। प्रमाद तक के कषाय तो व्यक्त रह सकते हैं और यह अव्यक्त - सा ही रहता है । इसलिए जहाँ प्रमाद घटकर केवल कषाय रहता है वहाँ से गुणस्थानों की अप्रमत्त संज्ञा रखी जाती है। इस प्रकार विचार करने से मिथ्यात्वादि चारों, मोह के ही भेद सिद्ध हो जाते हैं, इसलिए बन्ध के कारण पाँच कहने में और दो कहने में कोई अर्थभेद नहीं है । जहाँ कषायों की तरतमता दिखाना इष्ट है, वहाँ पाँच बन्ध कारण लिखे गये हैं, और जहाँ सामान्य बन्ध का वर्णन है वहाँ दो कारण ही लिखे गये हैं ।
1. 'मोहनीयस्य का प्रकृति ? मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता । ' - द्र. सं., गा. 33
2. आत्मा को परतन्त्र बनाकर जो कारण कषते या घात करते हैं उन कारणों का नाम कषाय है। ऐसा अर्थ मानने से मिथ्यात्व सबसे प्रबल कषाय सिद्ध होता है; क्योंकि, मिथ्यात्व के तुल्य दूसरा कोई भी कर्म जीव को विपर्यासित नहीं कर सकता। बन्धन मिथ्यात्वकर्म का सबसे तीव्र है। यदि मिथ्यात्व का तीव्र बन्ध हो तो सत्तर कोटा कोटी पर्यन्त नहीं हटता है। शेष किसी भी कर्म की इतनी मर्यादा नहीं है।
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