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________________ 216 :: तत्त्वार्थसार कर्म की अनादिता-कर्म बन्धन की यह दशा जीव के साथ कब से प्राप्त हुई? इसका उत्तर यह है कि जीवों की यह दशा अनादि काल से बनी हुई है। जो जीव तपोबल से मुक्त हो जाता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटकर शुद्ध हो जाता है उसके साथ फिर कर्मबन्धन प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि शुद्ध आत्मा का स्वरूप आकाश की तरह अमूर्त है। अमूर्त आत्मा को मूर्त पुद्गल पिंड नहीं बाँध सकता है। जिस प्रकार मुक्त हुए आत्मा का फिर कर्मबन्धन होना युक्ति से बाधित है उसी प्रकार संसारी या जो बद्ध जीव हैं वे भी यदि कभी प्रथम अवस्था में शुद्ध होते तो इनका बन्धन होना असम्भव हो जाता, परन्तु बन्धन की दशा शरीर की परतन्त्रता देखने से स्वीकार करनी पड़ती है। शरीर की परतन्त्रता में जीव तब तक नहीं रह सकता था जब तक कि किसी बन्धन से पराधीन न होता। बस, वह बन्धन अनादिकाल का सिद्ध होता है अर्थात्, जीव की दशा अनादिकाल से बन्धनयुक्त ही चली आ रही है। पूर्व-पूर्व बन्धन के कारण उस बन्धन के सहारे से दूसरे नये-नये बन्धन भी होते चले जाते हैं। जीव वास्तव में अमूर्त होकर भी उस मूर्त कर्म के बन्धन से मूर्त शरीरान्तर्गत माना गया है। इसीलिए उसका बन्धन उत्तरोत्तर काल में होता रहता है। ऐसा मानने से युक्ति की कोई बाधा नहीं आती है। कुछ लोग कर्मों को जीव का गुण-स्वभाव मानते हैं, परन्तु गुण हो तो अपने आश्रयभूत जीवद्रव्यों में से नष्ट कैसे हो सकेगा? मुक्ति के समय कर्मों का नाश हो जाना तो सभी मानते हैं। गुण का नाश द्रव्यों में से होने लगा तो गुणगुणी का एक अजहत्-शाश्वत सम्बन्ध जो न्यायसंगत माना जाता है वह न रह सकेगा और गुणों का क्रम से नाश हुआ तो अन्त में द्रव्य का भी नाश हो जाना मानना पड़ेगा, क्योंकि न्याय से यह बात सिद्ध है कि गुणों के समुदाय के सिवाय किसी भी द्रव्य में दूसरी कोई चीज नहीं है। इसलिए कर्म को जीव का गुण मानना ठीक नहीं है। बन्ध के हेतु क्या हैं? बन्धस्य हेतवः पञ्च स्युर्मिथ्यात्वमसंयमः। प्रमादश्च कषायश्च योगश्चेति जिनोदिताः॥2॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान ने मिथ्यादर्शन, असंयम, प्रमाद, कषाय व योग ये पाँच बन्ध के कारण कहे हैं। पहले भी आस्रव के प्रकरण में योग को बन्ध का कारण बताया है और साथ ही कषाय को भी कारण कहा है। इस प्रकार बन्ध के हेतु, योग व कषाय ये दो हैं। योगों को कर्म के प्रदेश संग्रह कराने में कारण माना जाता है और कषायों को कर्मत्वशक्ति प्रगट कराने में कारण माना जाता है। ग्रन्थान्तरों में भी बन्ध के कारण ये दो ही बताये गये हैं तो फिर ऊपर जो पाँच कारण लिखे हैं उनका क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-कारण, योग व कषाय ये दो ही हैं और शेष जो कारण हैं वे कषाय 1. 'जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कषायदो होति।'-द्र.सं., गा. 33 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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