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________________ पाँचवाँ अधिकार बन्धतत्त्व प्रकरण मंगलाचरण और विषय-प्रतिज्ञा अनन्त-केवलज्योतिः प्रकाशित-जगत्त्रयान्। प्रणिपत्य जिनान्मूर्जा बन्धतत्त्वं प्ररूप्यते॥1॥ अर्थ-केवलज्ञानरूप अपरिमित प्रकाश द्वारा तीनों जगत को प्रकाशित करनेवाले जिनेन्द्र भगवान को मस्तक नवाकर प्रणाम करते हैं और अब बन्धतत्त्व का वर्णन करेंगे, अर्थात् अब यह दिखाएँगे कि आत्मा का कर्म के साथ बन्धन किस प्रकार होता है और वह कर्मबन्धन क्या चीज है? । जीव का वास्तविक स्वरूप चैतन्य व अमूर्त है और जिन कर्मों से बन्ध होना मानते हैं वे कर्म जड़ व मूर्तिक हैं। मूर्तिक कहने से यह मतलब समझना चाहिए कि दिखने या अन्य बाह्य इन्द्रियों द्वारा छूने चखने, सूंघने, देखने व सुनने योग्य हो, उसे जैनमत में पुद्गल कहा है। उसका वर्णन विस्तार से अजीव तत्त्व में कर चुके हैं। उसकी साधारण पहचान यही है कि जो बाहर से हमारे देखने, जानने में आता है वही सब पुद्गल तत्त्व है। उसके कुछ सूक्ष्म परमाणु पिंड ऐसे भी स्वयं बनते रहते हैं कि जिनका आत्मा के साथ राग-द्वेष मिलने पर बन्धन हो जाया करता है। बस! उसी पुद्गलपिंड को कार्माण वर्गणा कहते हैं। ऐसी जो कार्माण वर्गणा होती हैं उनमें पुद्गल के परमाणु गिने जाएँ तो अनन्तों ही होते हैं, तो भी वह इतना सूक्ष्मपिंड होता है कि कभी हम लोगों के देखने में नहीं आ सकता, इसीलिए उसे सूक्ष्म कहते हैं। कुछ तरतमता लिए हुए वैसे ही सूक्ष्म और भी बहुत से प्रकार के पुद्गलपिंड होते हैं, परन्तु सभी वे कर्मयोग्य नहीं होते हैं। परमाणओं की संख्या और उन-उन परमाणओं की परस्पर की बन्धविचित्रता किसी एक प्रकार की नियत है। वही परमाणु संख्या और वही बन्ध-विचित्रता जिनमें हो जाती है वे ही पुद्गलपिंड कर्म होने के योग्य हो सकते हैं। वैसे कर्मयोग्य पिंड जगत में इतर पुद्गलों की तरह तथा वायु आदि की तरह सर्वत्र भरे रहते हैं और नये उपजते रहते हैं, पुराने नष्ट भी होते हैं। उन सभी पिंडों का जीवों के साथ बन्धन होता ही हो यह नियम नहीं है। जिन पिंडों के साथ जीव के रागद्वेष का सम्बन्ध प्राप्त होता है वे पिंड उस जीव में बँध जाते हैं। शेष यों ही बने रहते हैं और टूटते-बिखरते भी रहते हैं। इस प्रकार कर्मपिंडों से जीव सदा बँधता रहता है और जिस कर्म के बन्धन की अवस्था शिथिल होती जाती है वे कर्म आत्मा से सम्बन्ध छोड़कर जुदे भी होते रहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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