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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 219 ही होता है । वे प्रकृति ये हैं - (1) मिथ्यादर्शन, (2) नपुंसकवेद, (3) नरकायु, (4) नरकगति, (5) नरकगत्यानुपूर्व्य, (6) एकेन्द्रियजाति, (7) द्वीन्द्रियजाति, (8) त्रीन्द्रियजाति, (9) चतुरिन्द्रिय जाति, (10) हुंडक संस्थान, (11) असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, (12) आतप, (13) स्थावर, (14) सूक्ष्म, (15) अपर्याप्त, ( 16 ) साधारण शरीर । दूसरे गुणस्थान से लेकर चार बन्ध कारण रहे, परन्तु उन चारों में प्रथम असंयम कारण है। उसके तीन भेद हैं- (1) अनन्तानुबन्धी कषायकृत असंयम, (2) अप्रत्याख्यानावरण कषायजनित असंयम, (3) प्रत्याख्यानावरण कषायनिमित्तक असंयम । इन असंयमों का जैसा जैसा नाश होगा वैसा-वैसा कर्मबन्धन का भी संवर होगा । अनन्तानुबन्धी कषाय, दूसरे गुणस्थान तक उदय रहता है, इसलिए दूसरे गुणस्थान तक अनन्तानुबन्धी-जन्य प्रकृतियों का बन्ध होगा और तीसरे से संवर होगा । अनन्तानुबन्धी-जनित प्रकृति पच्चीस हैं - ( 1 ) निद्रानिद्रा, (2) प्रचलाप्रचला, (3) स्त्यानगृद्धि, (4) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (5) अनन्तानुबन्धी मान, (6) अनन्तानुबन्धी माया, (7) अनन्तानुबन्धी लोभ, (8) स्त्रीवेद, (9) तिर्यगायु, (10) तिर्यग्गति, ( 11 ) तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, (12) स्वाति संस्थान, (13) कुब्जक संस्थान, ( 14 ) न्यग्रोधपरिमंडल, (15) वामन संस्थान, (16) वज्रनाराच संहनन, ( 17 ) नाराच संहनन, ( 18 ) अर्धनाराच संहनन, (19) कीलित संहनन, ( 20 ) उद्योत, ( 21 ) अप्रशस्तविहायोगति, ( 22 ) दुर्भग, (23) दु:स्वर, ( 24 ) अनादेय, ( 25 ) नीचगोत्र । अप्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय चौथे असंयत सम्यग्दृष्टि नाम गुणस्थान पर्यन्त रहता है और इसके उदय से दश प्रकृतियों का बन्ध मुख्य होता है । वे दश प्रकृति हैं- (1) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, (2) अप्रत्याख्यानावरण मान, (3) अप्रत्याख्यानावरण माया, (4) अप्रत्याख्यानावरण लोभ, ( 5 ) मनुष्यायु, (6) मनुष्यगति, (7) मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, (8) औदारिक शरीर, (9) अंगोपांग, ( 10 ) वज्रर्षभ नाराच संहनन । ये दश प्रकृतियाँ चौथे गुणस्थान तक बँधती हैं। पाँचवें से इनका निरोध हो जाता है ।' प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय पाँचवें गुणस्थान तक रहता है और इसीलिए इसके निमित्त से बँधनेवाली चार प्रकृति पाँचवें गुणस्थान तक ही बँधती हैं, छठे से उनका संवरण हो जाता है। वे चार प्रकृति हैं - (1) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, (2) मान, (3) माया और (4) लोभ । इस प्रकार इस पाँचवें स्थानपर्यन्त थोड़ी बहुत अविरति' बनी रहती है, इसलिए बन्ध के कारण चार माने जाते हैं, छट्ठे गुणस्थान में अवरिति का अभाव हो जाने से बन्ध के कारण तीन रह जाते हैं; प्रमाद, कषाय, योग । प्रमाद के निमित्त से छह प्रकृतियों का बन्ध होता है; (1) असातावेदनीय, (2) अरति, (3) शोक, (4) अस्थिर, (5) अशुभ, (6) अयश: कीर्ति । छठे से ऊपर प्रमाद नहीं रहता, इसलिए इन छह प्रकृतियों का आना भी सातवें से रुक जाता है । 1. चौथे गुणस्थान तथा तीसरे गुणस्थान में बन्ध के कारण समान है तो तीसरे में किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता और आगेपीछे के गुणस्थानों में होता है इसलिए तीसरे, चौथे गुणस्थानों की बन्धयोग्य प्रकृति संख्या एक सी नहीं रह सकती है। नरक व तिर्यंच ये दो आयु तो दूसरे गुणस्थान से बन्ध से सर्वथा रुक ही जाती हैं, परन्तु मनुष्य व देवायु बँधती हैं और तीसरे में नहीं बँधती इसलिए तीसरे की बन्ध संख्या दो कम रहती है और चौथे की अधिक । 2. 'संयतासंयतस्याविरतिर्विरतिमिश्रा, प्रमादकषाययोगाश्च' इस सर्वार्थसिद्धि वृ. 732 के वाक्य से यह अर्थ सिद्ध होता है कि अविरति के कई तरतम भेद हैं और वे क्रम से घटते हैं। पाँचवें में आधी विरति आधी अविरति तथा शेष तीन कारण रहते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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