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________________ 212 :: तत्त्वार्थसार आहार व औषध का अर्थ प्रसिद्ध है। पीछी, कमण्डलु, पुस्तक, पेन, कागज, चश्मा आदि उपकरण दान है। शास्त्रदान में कौण्डेश ग्वाला प्रसिद्ध है, पथापरे (पलासना-शास्त्र बाँधने का वस्त्र, चौकी पर बिछाने का वस्त्र) इत्यादि धर्म साधन की जो सामग्री हो उसका नाम यहाँ उपकरण है। साधु व त्यागी श्रावकों के लिए धर्मशाला बनवाना आदि आवास नाम का दान है। आवास दान में शूकर तिर्यंच ने प्रसिद्धि पाई थी। समन्तभद्र' स्वामी जिनेन्द्रदेव की पूजा को भी दान में ही गर्भित करते हैं। देवाधिदेव के चरणों में जो पूजा की जाती है उससे सर्व दुःखों का नाश और मनोवांछित इष्ट फल की प्राप्ति होती है। एक पुष्प मात्र से पूजा की तैयारी करने वाले मेंढक ने राजगृह में यह जगत् भर को दिखा दिया कि जिन पूजा से स्वर्गादि सम्पत्ति तक के फल मिल सकते हैं। कहीं-कहीं पर आहार, औषध, अभय और ज्ञानदान ये भी दान के चार भेद कहे हैं। केवलियों को दानान्तरायादि का सर्वथा नाश हो जाने से क्षायिक दानादि प्रकट होते हैं, उसका मुख्य कार्य यही है कि संसार के शरणागत जीवों को अभय प्रदान करें, इसलिए अभयदान की पूर्णता केवलज्ञानियों के द्वारा ही हो सकती है। इसी प्रकार ज्ञानदान भी दिव्यवाणी द्वारा तत्त्वोपदेश देने से भव्यों को प्राप्त होता है, इसलिए उसकी योग्यता भगवान को प्राप्त होती है। शेष जो दो दान रहे, वे गृहस्थ के ही मुख्य कर्म हैं। दान देने के प्रकार को विधि कहते हैं। देने योग्य वस्तु को द्रव्य कहते हैं। देने वाले का नाम दाता और लेने वाले का नाम पात्र है। साधु को देखते ही भोजन के लिए भक्तिपूर्वक नम्रता से आह्वानन करना सो प्रतिग्रह कहलाता है। आने पर उच्चासन देना, पाद प्रक्षालन करना, पूजा करना, प्रणाम करना, मनोयोग-वचनयोग व काययोग को शद्ध रखना तथा आहार एवं आहार विधि को शुद्ध रखना ये नौ विधानों को विधि कहते हैं। जिस भोजन में तप, स्वाध्याय के साधन के जितनी अनुकूलता हो उतनी ही द्रव्य की विशेषता माननी चाहिए। दूसरे दातारों के साथ ईर्ष्या न होना, दान देने में क्लेश न रखना, यदि दूसरा कोई दान देना चाहे या दे रहा हो तो उसके साथ प्रेम का व्यवहार करना, पुण्य कर्म को करणीय समझना, दृष्ट फलों की चाह न रखना, निदान न करना ये गुण दाता में जैसे हीनाधिक हों वही दाता की विशेषता है। सम्यग्दर्शनादि मोक्ष कारणों की जैसी हीनाधिकता दान लेनेवाले में हो वही पात्र की विशेषता है। इन चार बातों के तारतम्य से दान द्वारा प्राप्त होनेवाले पुण्य फल में अन्तर पड़ता है। आस्त्रव का उपसंहार हिंसानृतचुराब्रह्मसंगसन्यासलक्षणम्। व्रतं पुण्यास्त्रवोत्थानं भावेनेति प्रपंचितम्॥ 101॥ हिंसानृतचुराब्रह्मसंगासन्यासलक्षणम्। चिन्त्यं पापास्त्रवोत्थानं भावेन स्वयमव्रम्॥ 102॥ 1. देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणं। कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यम्।119॥ अर्हच्चरणसपर्यामहानुभावं महात्मनामवदत्। भेक: प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे 120 ॥-रत्नक. श्रा. । 'दाणं पूजामुक्खो सावयधम्मो' इत्यादि वचनों से भी देवपूजा व वैयावृत्य-यह गृहस्थ का मुख्य धर्म सिद्ध होता है। 2. पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं पणवणं च। मणवचणकायसुद्धिमेसणसुद्धि च विधिमाहुः । 3. तप:स्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिर्द्रव्यविशेषः।-रा.वा., 7/39, वा. 3 4. प्रतिग्रहीतरि अनसूया, त्यागेऽविषादो, दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः, कुशलाभिसंधिता, दृष्टफलानपेक्षिता, निरुपरोधत्वमनिदानत्व मित्येवमादितृविशेषोऽवसेयः। 5. मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः। 6. क्षित्यादिविशेषाद्बीजफलविशेषवत्।-रा.वा., 7/39, वा, 4-5 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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