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चतुर्थ अधिकार :: 211
अर्थ- - अपना और दूसरों का जिससे हित हो सके, जिससे धर्म की वृद्धि हो सके, ऐसा दान गृहस्थियों का एक मुख्यव्रत है । उसी को अतिथिसंविभाग भी कहते हैं । इसका लक्षण यों है कि जो अपने धन' का परित्याग स्वपर हित के लिए हो, धर्मवृद्धि का कारण हो वह दान है । विधि, द्रव्य और दाता, पात्र की विशेषता से दान का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का हो जाता है और इसी कारण उस दान से जो पुण्य का संचय होता है वह भी नाना तरह का होता है।
श्री जिनसेनस्वामी दान को चार प्रकार का बताते हैं; (1) दयादान', (2) पात्रदान, (3) समदान, (4) अन्वयदान । अनुग्रह योग्य दीन प्राणियों पर कृपाकर जो उनका भय दूर करना सो दयादान है, करुणादान भी इसे कहते हैं । तपोधन साधुओं को जो भक्तिपूर्वक भोजन तथा कमण्डलु, पुस्तक आदि दिया जाता है उसे पात्रदान कहते हैं । गृहस्थ श्रावक को जो धनधान्यादि देना, भोजन कराना सो सब समदान कहलाता है। गृहस्थों के आपस में व्रत - मन्त्र समान होते हैं, इसलिए वे परस्पर समान कहलाते हैं । समानों को जो दान हो वही समदान कहलाता है । भावार्थ - विवाहादि के समय भोजन करना, कन्यादान करना - ऐसे दान समानदान कहलाते हैं। ये दान परस्पर उन्हीं में हो सकते हैं कि जिनके रीतिरिवाज, व्रतसंस्कार तथा मन्त्रविधान समान हों। जिन जातियों में परस्पर के रीतिरिवाज तथा व्रतमन्त्र समान नहीं माने जाते उनमें पंक्ति - भोजन व कन्यादान से समानदान नहीं हो सकते हैं। हाँ, किसी सम्यग्दृष्टि व्रती या अव्रती गृहस्थ को धर्मबुद्धि से जो भोजन कराता है वह पात्रदान का एक भेद है, न कि समानदान। पात्रों के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य ऐसे तीन भेद ग्रन्थों में किये हैं । उनको जो केवल धर्म की वृद्धि के लिए भक्तिपूर्वक दान दिया जाता है वह पात्रदान है और जो लोकप्रवृत्ति के अनुसार परस्पर में देना है वह समदान या समानदान है । यह समदान व पात्रदान में परस्पर भेद है ।
अपने वंश को स्थिर रखने के लिए जो धन तथा धर्म के साथ अपने समस्त कुटुम्ब को पुत्र के अधीन करना सो अन्वयदान है । अन्यवदान को सकलदान भी कहते हैं। इस प्रकार जो दान के चार भेद जिनसेन स्वामी ने लिखे है उनके अन्तर्गत सभी दान आ जाते हैं ।
श्री समन्तभद्र स्वामी जो दान के चार प्रकार बताते हैं वे पात्रदान के विषयों की अपेक्षा हैं । (1) आहार, ( 2 ) औषध, (3) उपकरण, (4) आवास- ये चार देने योग्य विषय हैं अर्थात्, भक्तिपूर्वक जो पात्रों को दान दिया जाता है वह इन्हीं चार चीजों का दिया जाता है। जो कन्यादान आदि हैं वे लोकरीति के अनुसार मानकर दिये जाते हैं अतएव वे समानदान हैं। जो उन कन्यादि दानों को पात्र दान समझते हैं वह समझ मिथ्या है और पात्रदान की अपेक्षा से वे कुदान हैं, इसीलिए पात्रदानों में इनका निषेध है।
1. 'स्वशब्दो धनपर्यायवचन: ' अर्थात् धन शब्द के अनेक अर्थ होते हैं परन्तु 'धन' अर्थ यहाँ पर लेना इष्ट है, ऐसा राजवार्तिककार लिखते हैं कि अभयदानादि योगियों में भी सम्भव हैं परन्तु यहाँ गृहस्थ का प्रकरण है, इसलिए धन का दान होना लिखा है । वसति आदिक धन के बिना नहीं बनती, इसलिए धन-त्याग का अर्थ वसतिदानादि भी होगा ।
2. चतुर्धा वर्णिता दत्तिर्दयापात्रसमन्वये ॥ महापु. पर्व 38, श्लो. 35
3. सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा । त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ॥ 36 ||
4. महातपोधनायार्चाप्रतिग्रहपुरस्सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ॥37॥
5. समानायात्मनान्यस्मै क्रियामन्त्रव्रतादिभिः । निरस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥38॥ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्यैव प्रवृत्या श्रद्धयान्विता ॥39॥ महापु. पर्व ॥38॥
6. आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थे सूनवे यशेषतः । समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनं 174 ॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् । महापु पर्व ॥38॥ 7. आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्ति ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ||117 ॥ रत्नक. श्री.
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