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________________ 206 :: तत्त्वार्थसार विषयों का परिमाण या मर्यादा करना सो भोगोपभोगपरिमाण व्रत' है। आवश्यक चीजों में से भी कम करते रहना यह भी इसी व्रत का स्वरूप है। भोगोपभोग ये दो बातें हैं—भोग व उपभोग। जो चीज भोगकर छोड़ने योग्य हो जाए वह भोग कहलाता है। बार-बार जो चीज भोगी जा सकती हो वह उपभोग है। भोग, जैसे भोजन। उपभोग, जैसे कपड़े। __ जबकि भोगोपभोग परिमाण व्रत में एक बार तथा अनेक बार भोगने योग्य-दोनों ही प्रकार की चीजें मर्यादित की जाती हैं तो दोनों ही प्रकार की मर्यादाओं के त्याग में जो मलिनता प्राप्त हो सकती है उसे अतिचार कहना चाहिए, इसलिए श्रीसमन्तभद्र स्वामी इस व्रत के अतिचार यों गिनाते हैं कि वषयों की अपेक्षा होना, 2. विषयों का बार-बार स्मरण करना, 3. विषयों में अत्यन्त लोलुपी बने रहना, 4. विषय संग्रह की तृष्णा अधिक रखना, 5. विषयों का बार-बार अनुभव-चिन्तवन करना ये पाँच अतिचार उक्त व्रत के हैं। यह बात दूसरे ग्रन्थकार की हुई, परन्तु श्रीतत्त्वार्थसूत्र के कर्ता तथा तदनुसार लिखने वाले श्री अमृतचन्द्रसूरि अपने तत्त्वार्थसार में जो अतिचार लिख रहे हैं वे भोग की मुख्यता से अथवा भोजन की अपेक्षा से हैं। इसका कारण यह है कि भोजन की चीजें कम तथा मर्यादित हो जाने से उक्त व्रत में विशुद्धि अधिक प्राप्त हो सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि उपभोग की मर्यादा प्रथम ही समाप्त-सी हो जाती है, परन्तु भोग का सम्बन्ध ग्यारहवीं प्रतिमा तक रहता है। तो फिर जो ग्यारहवीं प्रतिमावाला श्रावक हो वह उपभोग के त्याग में गड़बड़ करें तो क्या करें, इसलिए खाने की चीजों में जो गड़बड़ होना सम्भव है। श्रावक पाँचवीं प्रतिमा के समय सचित्त वस्तुओं के भक्षण का त्याग कर देता है और गरिष्ठ तथा स्वादिष्ट भोजन की तो सदा ही वह उपेक्षा करता है, इसलिए सचित्त, गरिष्ठ व स्वादिष्ट भोजन के खाने से अतिचार दोष लगना सम्भव है। देखो (1) सचित वस्तु का खाना, (2) सचित्त से सम्बन्ध रखने वाले भोजन का खाना, (3) सचित्त से मिला हुआ भोजन करना, (4) अभिषव भोजन करना, (5) दुष्पक्व भोजन करना—ये पाँच भोगोपभोग परिमाण के अतिचार हैं। चित्त नाम ज्ञान का है। सचित्त का अर्थ ज्ञानवान् चेतन प्राणी होता है। अर्थात् जो वस्तुएँ देखने में तो पुद्गल जड़ रूप ही दिखती हों, परन्तु जीव का सम्बन्ध उनमें अवश्य हो उन्हें सचित्त वस्तु कहते 1. अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम्। अर्थवतामप्यवधो रागरतीनां तनूकृतये॥82 ॥ रत्नक. श्रा. 2. आवश्यक चीजों में से जो घटाना है वह यमरूप भी हो सकता है और नियम रूप भी हो सकता है। यमनियम का लक्षण__'नियमो यमश्च विहितौ द्वेधाभोगोपभोगसंहारात्। नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते' ॥87॥ रत्नक, श्रा. 3. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पांचेन्द्रियो विषयः ॥83 ॥ रत्नक. श्रा. 4. विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवौ। भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥१०॥ रत्नक. श्रा. 5. चित्तं विज्ञानम्। तेन सह वर्तत इति सचित्तः।-रा.वा. 7/35, वा. 1 6. तदुपश्लिष्टः सम्बन्धः। संबध्यते इति सम्बन्धः।-रा.वा. 7/35, वा. 2 7. तद्व्यतिकीर्णः संमिश्रः।-रा.वा. 7/35, वा. 3 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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